________________ [103 स्मरापहस्याप्यभवस्य विस्फुरत्सुदर्शनस्याप्यजनार्दनस्य च। न नाभिजातस्य तवातिदुर्वचं, स्वरूपमुच्चैः कमलाश्रयस्य // 56 // __हे जिनेश्वर ! कामदेव के नाशक होकर भी आप शिव नहीं है, अपितु अभव-पुनर्जन्म से रहित मोक्षगामी हैं, सुदर्शन से युक्त होते हुए भी जनार्दन विष्णु नहीं हैं अपितु सुदर्शन-सम्यग् दर्शन होते हुए प्रजनार्दन-लोगों को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं और कमलाश्रय होकर भी नाभिजात ब्रह्मा नहीं है अपितु लक्ष्मी के आश्रय होकर भी अभिजात नहीं हो ऐसा नहीं है अर्थात् महान् कुलीनं हैं। इस प्रकार आपका स्वरूप अत्यन्त वर्णनीय है // 56 // . चतुर्मुखोऽङ्गीकृतसर्वमङ्गलो, विराजसे यन्नरकान्तकारणम् / विरञ्चिगौरीशमुकुन्द-संज्ञिता, सुरत्रयो तत् त्वयि कि न लीयते ? // 60 / / हे जिन ! आप जब चतुर्मुख-सर्वव्यापी, समस्त मङ्गलों से युक्त और नरक का अन्त करने वाले इस भूमण्डल पर विराजमान हैं तो फिर उन ब्रह्मा-चतुर्मुख, शिव-सर्वमंगलकारी और विष्णु-नरकान्तक तोनों देवों की मूर्ति आपमें ही विराजमान नहीं हो जाती है क्या ? अर्थात् वे तीनों देव आपमें ही पा जाते हैं / 60 // वृथा कथासौ परदोषघोषणैस्तव स्तुतिविश्वजनातिशायिनः / प्रसिद्धिहीनादनपेक्ष्य तुल्यतां, भवेदलीकातिशयान्न वर्णना // 61 // .. हे देव ! दूसरे के दोषों की घोषणा से समस्त जनों में श्रेष्ठ ऐसे आपकी स्तुति वृथा है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि समानना की अपेक्षा किये बिना प्रसिद्धिहीन के साथ असत्य अतिशय से वर्णन