________________ 168 ] सके गुणों का उद्भव उसके शरीर में ही होता है / जिस स्थानमात्र में ही. जिसके गुणों का उद्भव होता है वह उस स्थानमात्र में ही सीमित होता है जैसे घट, पट आदि पदार्थ / प्रश्न हो सकता है कि जब आत्मा के प्रदेश संख्या में लोकाकाश के प्रदेशों के समान हैं, तब उतने प्रदेशों का किसी एक लघुशरीर में सीमित होना कैसे सम्भव हो सकता है ? उत्तर यह है कि आत्मा के प्रदेश पाषाण के समान ठोस नहीं होते किन्तु उनमें आवश्यकतानुसार सिकुड़ने और फैलने की क्षमता होती है / जब किसी आत्मा को उसके पूर्वकर्मानुसार कोई लघुशरीर प्राप्त होता है तब वह आत्मा अपने समस्त प्रदेशों को समेट कर उस लघुशरीर में ही सीमित हो जाता है तथा जब वह किसी विशाल शरीर को प्राप्त करता है तब अपने प्रदेशों को विस्तृत कर उस विशाल शरीर में फैल जाता है और जब अपने कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है तब प्रदेशों की परिधि को लाँघ कर अलोकाकाश में उठ जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन की दृष्टि में आत्मा के एक संकोच-विकासशील पदार्थ होने से उक्त प्रश्न के लिये कोई अवकाश नहीं रहता // 70 // स्वाहाभुजो ज्वलनमूर्ध्वमपि स्वभावात्, सम्बन्धभेदकलितादथवाऽस्त्वदृष्टात् / दिग्देशत्ति-परमाणु-समागमोऽपि, तच्छक्तितो न खलु बाधकमत्र विद्मः // 71 // पूर्व पद्य में यह बताया गया है कि 'व्यक्तिरूप में आत्मा अपने शरीरमात्र में सीमित रहता है' इस पर यह शङ्का होती है कि जब आत्मा शरीर मात्र में ही सीमित रहेगा तब आत्मगत अदृष्ट का दूरदूर के भिन्न-भिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नियों के साथ एकसाथ सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें एक साथ जो ऊर्ध्वमुख ज्वाला