________________ [ 166 का उदय होता है वह कैसे होगा? शङ्का का आशय यह है कि 'जब आत्मा को शरीर मात्र में सीमित न मानकर विभु माना जाता है तब आत्मगत अदृष्ट का विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग अथवा स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध एक साथ हो सकता है। जैसे स्वहै अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा,. उससे संयुक्त है विभिन्न स्थानों में विद्यमान अग्नि का समीपस्थ वायु और उसका संयोग है अग्नि के साथ / अथवा स्व है अदृष्ट, उसका आश्रय है आत्मा, व्यापक होने से उसका संयोग है विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ / इस प्रकार आत्मा को विभु मानने पर उसके अदृष्ट का उक्त सम्बन्ध विभिन्न स्थानवर्ती अग्नि के साथ हो सकने के कारण उक्त सम्बन्ध से अदृष्ट विभिन्न स्थानवर्ती अग्नियों में एक साथ ऊर्ध्वाभिमुख ज्वाला उत्पन्न कर सकेगा। पर जब आत्मा विभु न होकर शरीरमात्र में ही सीमित रहेगा तब शरीरस्थ आत्मा का दूरवर्ती भिन्न-भिन्न वायु अथवा भिन्न-भिन्न अग्नि के साथ युगपत् संयोग न हो सकने से उसके अदृष्ट का भी उक्त सम्बन्ध न हो सकेगा, अतः आत्मगत अदृष्ट द्वारा विभिन्न स्थानवर्ती विभिन्न अग्नियों में एक साथ ऊर्ध्वज्वलन का जन्म न हो सकेगा? इस शंका का उत्तर यह है कि-'अग्नि का जो ऊर्ध्वज्वलन होता है वह अदृष्टमूलक नहीं है किन्तु अग्निस्वभावमूलक है, क्योंकि यदि उसे अदृष्ट मुलक माना जाएगा तो अदृष्ट का जैसा सम्बन्ध अग्नि के साथ है वैसा ही सम्बन्ध जल, वायु आदि के भी साथ है फिर उस सम्बन्ध से जैसे अग्नि की ज्वाला में ऊर्ध्वगति होती है वैसे ही जल और वायु आदि. में भी ऊर्ध्वगति होने की आपत्ति होगी' इसलिये यही मानना उचित होगा कि अग्नि का ऊर्ध्व-ज्वलन, जल का निम्नवहन और वायु का तिर्यग्वहन उनके अपने-अपने विलक्षण स्वभाव के कारण ही होता है।