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________________ 200.] ____ यदि यह कहा जाए कि 'अदृष्ट कार्यमात्र का कारण होता है, बिना अदृष्ट के कोई कार्य नहीं होता, अतः ऊर्ध्वज्वलन आदि को उत्पन्न करनेवाले अदृष्ट को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता, फिर अदृष्ट से ही जब ऊर्ध्वज्वलन आदि का नियमन हो सकता है तब अग्नि आदि के स्वभावभेद को ऊर्ध्वज्वलन का नियामक मानना उचित नहीं है, इस लिए ऊर्ध्वज्वलन आदि के प्रति अदृष्ट की कारगता को उत्पन्न करने के लिए उसके आश्रयभूत आत्मा का शरीर से बाहर भी अस्तित्व मानना आवश्यक है ?' तो,इस कथन के उत्तर में जैनदर्शन का यह वक्तव्य होगा कि 'अदृष्ट कार्यमात्र का कारण है अतः उसी को ऊप्रज्वलन आदि का नियामक मानना उचित है, यह ठीक है, पर इसके लिए आत्मा को विभु मानना आवश्यक नहीं है क्यों कि इसकी उपपत्ति तो अग्नि आदि के साथ अदृष्ट का कोई साक्षात् सम्बन्ध मान लेने से भी हो सकती है / इस पर यदि यह शङ्का की जाए कि एक आत्मा के शुभाशुभ आचरणों से उत्पन्न होनेवाले अनन्त अदृष्टों का अनन्त द्रव्यों के साथ साक्षात् सम्बन्ध मानने की अपेक्षा उन समस्त अदृष्टों का उस एक आत्मा के साथ सम्बन्ध मानकर उसके द्वारा विभिन्न द्रव्यों के साथ उनका सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रात्मा को विभु मानना ही उचित है' तो उसका उत्तर यह है कि आत्मा को विभु मानना उचित नहीं है क्योंकि यदि उसे विभु माना जाएगा तो शरीर के बाहर भी उसकी सत्ता माननी होगी और उस दशा में शरीर के समान शरीर के बाहर भी आत्मा के ज्ञान आदि गुणों के प्राकट्य की आपत्ति होगी ? अतः आत्मा को शरीरमात्र में सीमित मानकर कार्यमात्र के प्रति अदृष्ट की कारणता को उपपन्न करने के लिए समस्त कार्यदेशों के साथ अदृष्ट के साक्षात् सम्बन्ध की कल्पना ही उचित है।' इस सन्दर्भ में दूसरी शंका यह होती है कि 'यदि आत्मा विभु
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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