________________ [ 201 न होगा तो विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित परमाणुओं के साथ आत्मा के अदष्ट का सम्बन्ध न हो सकने के कारण उनमें अदृष्टमूलक गति न हो सकेगी, और गति के अभाव में परमाणुओं का परस्पर मिलन तथा उससे शरीर आदि का निर्माण कुछ भी न हो सकने के कारण इस प्रत्यक्ष जगत् की भी उपपत्ति न हो सकेगी?' इस शंका का उत्तर यह है कि 'उपर्युक्त दोष की आपत्ति तब होती जब आत्मा को एकान्ततः अव्यापक ही माना जाता, पर जैनदर्शन में जैसे आत्मा की एकान्ततः व्यापकता नहीं है उसी प्रकार उसकी एकान्ततः अव्यापकता भी नहीं है। यह बात पूर्व पद्य में स्पष्ट कर दी गई है कि आत्मा व्यक्तिरूप में विभु अव्यापक-अपने विद्यमान शरीरमात्र में ही सीमित होने पर भी शक्तिरूप में विभु है, समस्त लोकाकाशप्रसरी है / अतः आत्मा अपनी अदृष्टशक्ति से विभिन्न दिशाओं और विभिन्न स्थानों में स्थित विभिन्न परमाणुओं को गतिशील बना उनके परस्पर मिलन को सम्पन्न कर जगत् के विस्तार को शक्य और सम्भव कर सकता है। उपर्युक्त रीति से प्रसक्त-अनुप्रसक्त समस्त विषयों पर विचार करने पर यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि 'शक्ति की दष्टि से प्रात्मा को विभु और व्यक्ति की दृष्टि से उसे अविभु अर्थात् शरीरमात्र में सीमित मानने में कोई बाधा नहीं देखते हैं // 71 // मूर्तत्व-सावयवता-निजकार्यभावच्छेदप्ररोह-पृथगात्मकता-प्रसङ्गाः। सर्पा इवातिविकरालदृशोऽपि हि त्वत्, स्याद्वादगारुडसुमन्त्रभृतां न भीत्यै // 72 // आत्मा को अविभु मानने पर कुछ और भी आपत्तियाँ उठती हैं, जो इस प्रकार हैं