________________ [ 11 का अध्ययन करने से आपका जन्म सम्भवतः वि०सं० 1640 से 1650 के बीच का माना जा सकता है तथा वे सं० 1743 में स्वर्गवासी हुए थे, इस उल्लेख के आधार पर उनकी आयु सौ वर्ष की रही होगी यह अनुमान किया जा सकता है / सं.१६८८ में 'सुजसवेली' रचना के कथनानुसार पण्डित 'नयविजयजी' कुणगेर से चातुर्मास करके कनोडं पधारे, जसवंत की माता 'अपने पुत्र का जीवन धामिक-संस्कारों से सुवासित बने' इस भावना से प्रतिदिन देवदर्शन तथा गुरुदर्शन के लिये जाती थीं तब जसवन्त को भी साथ ले जाती थीं। देवदर्शन करके नित्य उपाश्रय में गुरु को वन्दना और सुखशाता की पृच्छा करके माङ्गलिक पाठ का श्रवण करतीं और अपने घर गोचरी-भिक्षा का लाभ देने की प्रार्थना करतीं। धीरे-धीरे जसवंत अन्य समय में उपाश्रय जाता-अाता, साधुओं के साथ बैठता, साधु महाराज उसे प्रेम से बुलाते तथा दीक्षा के सम्बन्ध में बालक को ज्ञान हो उस पद्धति से प्रेरणा देते / रत्नपरीक्षक जौहरी जिस प्रकार हीरे को परखता है तथा उसके मूल्य का अनुमान निकालता है, उसो के अनुसार गुरुवर्य नयविजयजी ने भी जसवन्त के तेजस्वी मुख, विनय तथा विवेक से पूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चतुरता, धर्मानुरागिता ग्रादि गुणों को देखकर भविष्य के एक महान् नररत्न की झाँकी पाई / जसवंत के भविष्य का अङ्कन कर लिया। गुरुदेव ने संघ की उपस्थिति में जसवंत को जैनशासन के चरणों में समर्पित करने अर्थात् दीक्षा देने की मांग की। जैनशासन को ही सर्वस्व माननेवाली माता ने सोचा कि 'यदि मेरा पुत्र घर में रहेगा तो अधिक से अधिक वह धनाढ्य बनेगा अथवा देश-विदेश में प्रख्यात होगा या कुटुम्ब का भौतिक हित करेगा।' गुरुदेव ने जो कहा है उस पर विचार करती हूँ तो मुझे लगता है कि 'मेरा पुत्र घर में रहेगा तो सामान्य दीपक के