________________ [ 251 धौरा ! धीराजमानं तं श्रयध्वं पार्श्व मीश्वरम् / - कुरुते यत्प्रतापस्य नूनं नीराजनां रविः // 12 // हे धीरजनों ! अपनी प्रखर-बुद्धि से शोभायमान उन श्रीपार्श्वनाथ की शरण में जाम्रो जिनके प्रताप की सूर्य निश्चित रूप से आरती उतारता रहता है / / 12 // पाश्वो जयति यत्कोतरुच्छिष्टमिव चन्द्रमाः। अत एव पतङ्गस्याऽऽपततो याति भक्ष्यताम् // 13 // उन भगवान् पार्श्वनाथ की जय हो, जिनकी कीर्ति के उच्छिष्ट भाग के समान चन्द्रमा है / और यही कारण है कि वह चन्द्रमा उदित होते हुए सूर्य का भक्ष्य बन जाता है / / 13 // पाऊ जयति गाम्भीर्यं गृहीतं येन वारिधेः / ततः शिष्टानि रत्नानि भीतोऽसौ किमधो दधौ // 14 // वे भगवान् पार्श्वनाथ जय को प्राप्त हो रहे हैं जिन्होंने समुद्र की गम्भीरता छीन ली है / और तब से ही अपने पास बचे हुए कुछ रत्नों को-कहीं ये भी मेरी उच्छ, खलता को देखकर भगवान् मुझसे छीन न लें-क्या इसी भय से उसने अन्दर अपने छिपा लिये हैं ? // 14 // . श्रिये पावः स वो यस्य क्षमाभृत्त्वगुणोऽखिलः। लक्ष्मव्याजादतः शेषस्तल्लाभाय यमाश्रितः // 15 // वे भगवान् पार्श्वनाथ आपका कल्याण करें जिनके क्षमाशील आदि गुण सर्वोपरि हैं / और यही कारण है कि शेषनाग उनके चिह्न के बहाने उस क्षमाधारणरूप उत्तम गुण की प्राप्ति के लिये उनकी सेवा कर रहा है // 15 //