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________________ 260 ] अंकुररूप रोमराजि से शोभित, प्रेम से प्रफुल्लित नेत्रवाला, भक्ति के आवेग से देदीप्यमान और विनयादि गुणों के विस्तार के उल्लास से युक्त, जिस प्रकार सूर्य भूमण्डल की परिक्रमा करता है उसके समान प्रदक्षिणाक्रम से सर्वतोभावेन वन्दना करके यह पूज्य 'नयविजय' जी का शिष्य विज्ञप्ति को प्रकट करता है / 20-21-22 / / यथाकृत्यमिह प्राच्य-शैल-चूलावलम्बिनि / भानौ भगवतीसूत्र-स्वाध्यायार्थ-विवेचने // 23 // हे गुरुदेव ! यहां उदयाचल के शिखर पर सूर्य के प्राजाने पर श्रीभगवतीसूत्र का स्वाध्याय तथा उसके अर्थादि का विवेचन (विस्तारपूर्वक प्रतिपादन) होता है अर्थात् प्रतिदिन प्रातःकाल श्रीभगवतीसूत्र का व्याख्यान होता है // 23 // प्रस्तुताध्ययनग्रन्थाध्यापनाद्येककर्मणि। . प्रवर्तमाने सम्प्राप्तं पर्व पर्युषणाभिधम् // 24 // इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थों के अध्ययन एवं अध्यापन में प्रवृत्त रहते हुए पर्युषण-पर्व आ गया है // 24 // तत्रापि पटहोद्घोषः पापध्वंसपुरस्सरम् / दिनेषु पञ्चसु श्रीमत्कल्पसूत्रस्य वाचनम् // 25 / / मासार्द्धमासमुख्यानां तपसां पारदर्शनम् / षद्विषादिकसङ्ख्यानां महाधीरनिदर्शनम् / / 26 / / सार्धामक-जनानाञ्च वात्सल्यकरणं मिथः। दीनानाथादिवर्गस्य वाञ्छाधिकसमर्पणम् // 27 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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