________________ 62 ]. हे देव ! इस संसार में आप ही मेरे पिता हैं, आप ही बन्धु हैं, आप ही गति हैं, आप ही रक्षक हैं और राजाओं से नमस्कत हैं तथा आप ही शासक हैं / हे भगवन् ! संसार में आपको छोड़कर देवता की बुद्धि से मैं अन्य देव की सेवा नहीं करता हूँ। अतः प्रतिदिन अनेक प्रकार से स्तुति करनेवाले इस जन पर कृपा कीजिये // 16 // जगज्जेत्रश्चित्रैस्तव गुणगणैर्यो निजमनः, स्थिरीकृत्याकृत्याद् भृशमुपरतो ध्यायति यतिः। इहाप्यस्योदेति प्रशमलसदन्तःकरणिकासमप्रेमस्थेमप्रसरजयिनी मोक्षकरिणका // 20 // हे जिनेश्वर ! जो श्रमणमुनि जगत् को जीतनेवाले, आश्चर्यकारी गुणगणों से अपने मन को स्थिर बनाकर अनुचित कर्म से दूर रहता हुआ निरन्तर आपका ध्यान करता है उस मुनि की प्रशम से शोभित अन्तःकरणवाली, समतारूपी प्रेम की स्थिरता को जीतनेवाली मोक्षकणिका यहीं उदय होती है // 20 // फणैः पृथ्वी पृथ्वों कथमिह फरणीन्द्रः सुमृदुभिहरिन्नागा रागात् कथमतिभरक्लान्ततनवः / क्व कर्मों वा धत्तां निमृततनुरेको जलचरः, पटुर्धर्मः शर्मप्रजन ! तव तां धर्तुमखिलाम् // 21 // हे कल्याणजन्म जिनेश्वर ! इस जगत् में सर्पराज अपने कोमल फणों को बहुत बड़ी पृथ्वी को कैसे धारण करे ? अतिभार से खिन्न दिशाओं के हाथी रागपूर्वक उस पृथ्वी को कैसे धारण करें अथवा जिसका शरीर छिपा रहता है और जो जलचर है वह अकेला उस पृथ्वी को कैसे धारण कर सकता है। अतः केवल आपका धर्म ही