________________ [ 61 जपन्तस्त्वन्नाम प्रतिदशमि मन्त्राक्षरमयं, दशानामाशानां श्रियमुपलभन्ते कृतधियः / दशाप्याचाम्लैस्तु त्रिदशतरवः सन्निदधते, कृतैः किं वा न स्याद् दशनिरयवासातिविलयः // 17 // हे जिनेश्वर ! प्रत्येक दशमी तिथि को मन्त्राक्षरमय आपके नाम का जप करते हुए बुद्धिमान् व्यक्ति दसों दिशाओं की लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं और दस प्रायम्बिल करने मात्र से तो कल्पवृक्ष सामने खड़े हो जाते हैं अथवा उनके करने से दशविध नरकों के वास की पीडा का क्या विलय नहीं होता ? अवश्य होता है // 17 // स्रजं भक्त्या जन्तुर्घनसुमनसां सौरभमयों, न यः कण्ठे धत्ते तव भवभयातिक्षयकृतः / कथं प्रेत्याभ्येत्य त्रिदशतरुपुष्पस्रजमहो, शुभायत्तां धत्तां त्रिदशतरुणी तस्य हृदये ? // 18 // हे जिनेश्वर ! जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक भव-भय की पीडा को नष्ट करनेवाले आपके कण्ठ में घने पुष्पों की सुगन्धित माला को नहीं पहनाता है उसके मरने के बाद सामने आकर हृदय पर देवरमणी कल्पवक्ष की सौभाग्यसूचक (प्रियवरणरूप) माला को कैसे डाले ? अर्थात् यदि यहां वह आपको माला पहनाता है तो स्वर्ग में उसे देवाङ्गना माला पहनाएगी / / 18 / / पिता त्वं बन्धुस्त्वं त्वमिह नयनं त्वं मम गतिस्त्वमेवासि त्राता त्वमसि च नियन्ता नतनृपः। भजे नान्यं त्वत्तो जगति भगवन् ! दैवतघिया, दयस्वातः प्रीतः प्रतिदिनमनन्तस्तुतिसृजम् // 16 //