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________________ 60 ] . हे जिनेश्वर ! राह में भटकते हुए मोक्षमार्ग के पथिक संघ के भविकों को आपके अतिरिक्त दूसरा कौन दीप के समान ज्ञान से मार्ग पर ला सकता है ? अतः आपके इस प्रभाव से उत्पन्न पवित्र कीर्तिसमूह कलियुगीन क्रियाकलाप से मलिन भुवन को शीघ्र ही अपनी इच्छानुसार निर्मल बनाता है // 14 // विलोलः कल्लोलेजवन-पवनदिनशताहतोद्योतः पोत निकट विकटोद्यज्जलचरः। जनानां भीतानां त्वयि परिणता भक्तिरवना, जगबन्धो ! सिन्धोनयति विलयं कष्टमखिलम् // 15 // हे विश्ववत्सल जिनेश्वर ! अति चंचल तरंगों और वेगवान् पवन से युक्त सैंकड़ों दुर्दिनों से आहत प्रकाशवाले तथा पास ही भीषण जलचरों से घिरे हुए जहाजों में भयभीत प्राणियों की आपके प्रति भक्ति रक्षा करती है और समुद्रजनित सारे कष्ट नष्ट हो जाते हैं // 15 // . . अटव्यामेकाको नतनिखिलनाकोश ! पतितो वृतायां कीनाशैरयि ! (रिव) हरिकरिव्याघ्रनिकरः। जनस्तत्पूतात्मा भवन इव भीति न लभते, मनश्चेत् त्वन्नामस्मरणकरणोत्कं वितनुते // 16 // हे सर्वदेव नमस्कृत जिनेश्वर ! यमराज के समान (हिंस्र) सिंह, हाथी और बाघों के समूह से व्याप्त जंगल में घिरा हुआ व्यक्ति पवित्रात्मा बनकर यदि आपका नामस्मरण करने में अपने मन को लगा देता है तो जैसे वह अपने ही घर में बैठा हो और वहाँ कोई भय नहीं लगता वैसे ही निर्भय बन जाता है / / 16 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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