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________________ [ 56 उदारं यन्तारं तव समुदयत्पूष-विलसन्मयूषे प्रत्यूषे जिनप ! जपति स्तोत्रमनिशम् / प्रतप॑द्दानाम्भः-सुभगकरटानां करटिनां, घटा तस्य द्वारि स्फुरति सुभटानामपि न किम् ? // 12 // हे जिनेश्वर ! जो व्यक्ति उदित होते हुए सूर्य की किरणों से सुशोभित प्रातःकाल में ऊँचे स्वर से आपके उदार स्तोत्र का पाठ करता है--आपके गुण-गणों का स्मरण करता है, उसके द्वार पर मदजल के बहने से सुन्दर गण्डस्थलवाले हाथियों और योद्धाओं का समूह नहीं दिखाई देता है क्या ? अर्थात् उसके द्वार पर अनेक मदमत्त हाथी और सैनिक झूमते रहते हैं-वह सम्राट हो जाता है / / 12 / / महालोमक्षोभव्यसनरसिकं चेतसि यदि, स्फुरेद् वारं वार कृतभवनिकार त्वदभिधम् / तमोह्रासादासादितततविकासाय मुनये, तदा मायाकाया न खलु निखिला द्रुह्यति निशा // 13 // हे देव ! जन्मजनित दुःख को दूर भगानेवाला और महान् लोभ को नष्ट करने की प्रवृत्तिवाला आपका नाम यदि निरन्तर स्फुरित हो, तो अज्ञान के क्षीण हो जाने से प्राप्त विस्तृत विकासवाले मुनि से मायिक शरीरवाली अज्ञानरूपा रात्रि निश्चय ही द्वेष नहीं करती॥ 13 // स्थलीषु प्रभ्रष्टान् शिवपथपथः सङ्घभविनो, . * विना त्वामन्यः कः पथि नयति दीपानुकृतिभिः / प्रभावादुद्भूतस्तव शुचिरितः कीर्तिनिकरः, करोत्यच्छं स्वच्छं कलिमलिनमह्नाय भुवनम् // 14 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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