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________________ 58 ] स्थल से गाढ आलिंगन करता है। इस अनुचित कार्य की प्रवृत्ति से उसे अच्छा फल कैसे प्राप्त हो सकेगा ? क्योंकि संसार में दावाग्नि से लताओं की वृद्धि कभी नहीं होती है // 6 // प्रदीपं विद्यानां प्रशमभवनं कर्मलवनं, महामोहद्रोहप्रसरदवदानेन विदितम् / स्फुटानेकोद्देशं शुचिपदनिवेशं ज़िन ! तवोपदेशं निःक्लेशं जगदधिप ! सेवे शिवकृते // 10 // हे जिनेश्वर ! हे जगदीश्वर ! मैं अपने कल्याण के लिये समस्त विद्याओं का ज्ञान कराने में दीपकरूप, प्रशम-मानसिक शान्ति और इन्द्रियनिग्रह के लिये भवनरूप, कर्मों का नाशक, महामोह और ईर्ष्या के फैलाव को नष्ट करने में प्रसिद्ध, स्पष्ट अनेकान्त दर्शन से युक्त, पवित्र मार्ग की ओर प्रवृत्त करनेवाले और क्लेशरहित सुखप्रद आपके उपदेश का सेवन करता हूँ // 10 // . अगण्यैः पुण्यश्चेत् तव चरणपके रुहरजः, . शुचिश्लोका लोकाः शिरसि रसिका देव ! दधते। . तदा पृष्ठाकृष्टा धृतधृतिरमीषां कृतधियामविश्रान्तं कान्तं त्यजति न निशान्त जलधिजा // 11 // हे देव ! पवित्र यशवाले रसिकजन अपने अगणित पुण्यों से यदि आपके चरणकमल की रज को अपने सिर पर धारण करते हैं, तो इन विवेकियों के पीछे लक्ष्मी स्वयं आकृष्ट होकर पहुँचती है और उनके प्रिय सदन में सदा धैर्यपूर्वक स्थिर बन कर उन्हें कभी नहीं छोड़ती है // 11 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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