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________________ उस समस्त पृथ्वी को धारण करने में समर्थ है / / 21 // ज्वलन् ज्वालाजालंज्वलनजनितैर्देव ! भवता, बहिः कृष्टः काष्ठात् कमठहठपूरैः सह दितात / नमस्कारैः स्फारैर्दलितदुरितः सद्गुणफरणी, किमद्यापि प्रापि प्रथितयशसा नैन्द्रपदवीम् // 22 // हे देव / आपने कमठ नामक तपस्वी के दुराग्रहवश प्राग की लपटों में जलते हुए सर्पराज को लकड़ी चीर कर बाहर निकाला और तदनन्तर प्रसिद्ध यशस्वी आपने उदार नमस्कार-मन्त्र के उपदेश से उस सद्गुणशाली सर्प को निष्पाप बनाकर आज भी इन्द्रपदवी नहीं दिलायी क्या ? // 22 // महारम्भा दम्भाः शठकमठपञ्चाग्निजनितास्त्वया दोर्णाः शीर्णाखिलदुरितकौतूहलकृता। किमाश्चर्य वयं तदिह निहताः किं न रविरणा, . विनायासं व्यासं रजनिषु गता ध्वान्तनिकराः // 23 // : हे पार्श्वजिनेश्वर ! कुतूहलपूर्वक समस्त पापों को नष्ट करनेवाले आपने दुष्ट कमठ के पञ्चाग्निजनित आडम्बरपूर्ण अभिमान को चूर्ण कर दिया यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यहाँ सूर्य ने बिना प्रयास के ही रात्रि में सर्वत्र फैले हुए अन्धकार समूह को नष्ट नहीं किया है क्या ! // 23 // ज्वलत्काष्ठकोडात् फरिणपतिसमाकर्षणभवं, * यशः कर्षत्युच्चैस्तव परयशः कारणगुणात् / इदं चित्रं काष्ठाद् बहिरपसृताज्जातमहितो, न यत् स्पष्टं काष्ठापसरणरसं हन्त ! वहति // 24 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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