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________________ 64.] हे देव ! जलती हुई लकड़ी के बीच से सर्पराज को निवाल लेने का आपका यश कारणगुण से दूसरों के यश को हठात् खींच लेता है। किन्तु आश्चर्य यह है कि उस काष्ठ के चीरने से बचाये गये सर्प के कारण तो आपका यश बढ़ा पर यह स्पष्ट है कि आपका यश काष्ठ से बाहर निकालने के रस को नहीं धारण करता है // 24 // द्विषत्ताप-व्याप-प्रथन-पटुभिर्मोह-मथनः, प्रतापराक्रान्तस्तव न कमठः , कान्तिमधृत / महोभिः सूरस्य प्रथितरुचिपूरस्य दलितद्युतिस्तोमः सोमः श्रयति किमु शोभालवमपि ? // 25 // हे जिनेश्वर ! शत्रुओं को सन्तप्त करने में समर्थ और मोह का मथन करनेवाले आपके प्रभावों से आक्रान्त उस कमठ ने कान्ति को धारण नहीं किया। क्योंकि प्रशस्त प्रभा से पूर्ण सूर्य के तेज से दलित पूर्णकान्ति युक्त चन्द्रमा क्या कभी उस सूर्य की शोभा के लव को भी प्राप्त करता है ? / / 25 // विलासः पद्मानां भवति तमसामप्युपशमः, प्रलीयन्ते दोषा व्रजति भवपङ्कोऽपि विलयम् / प्रकाशः प्रोन्मीलेत् तव जिन ! जगज्जित्वरगुण ! प्रतापानां भानोरिव जगदभिव्याप्तिसमये / / 26 / / हे जगत् को जीतनेवाले गुणों से विभूषित जिनेश्वर ! सूर्य के प्रताप के समान आपके प्रताप के संसार में व्याप्त हो जाने पर कमल और कमला का विकास होता है, अन्धकार और अज्ञान का नाश होता है, रात्रि और दोष समूह मिट जाते हैं, सांसारिक पाप और सांसारिक मोह नष्ट होता है और प्रकाश-ज्योति तथा अध्यात्मज्ञान पर्याप्त फैलता है / / 26 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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