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________________ किमु स्पष्टः कष्टः किमु परिणतरासनशतः, प्रयोगा योगानां नहि भववियोगाय पटवः / त्वदाज्ञा चेदेका शिरसि न विवेकानुपहृता, विना वीर्य कार्य न भवति नृणां भेषजगरणः // 27 // हे जिनेश्वर ! यदि आपकी एक आज्ञा विवेकपूर्वक सिर पर धारण नहीं की गई तो तपस्या आदि-जिनमें कि स्पष्ट ही कष्ट हैउनसे क्या ? सैंकड़ों आसन करने से क्या ? योगों के प्रयोग से क्या ? वे भव-बन्धन से छुड़ाने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् आपकी आज्ञा को शिरोधार्य किये बिना तप, आसन एवं योग सभी व्यर्थ हैं। क्योंकि यदि मनुष्यों में वीर्य नहीं होता है, तो अन्य सैंकड़ों ओषधियों से कोई काम नहीं चलता है / / 27 // नराः शीर्षे शेषामिव तव विशेषार्थविदुषः, शतै राज्ञामाज़ामिह दधति ये देव ! महिताम् / अविश्रामस्तेषामहमहमिकायातनृपतिप्रणामरुद्दामः समुदयति कोतिर्दिशि दिशि // 28 // हे जिनेश्वर ! जो मनुष्य यहाँ सैंकड़ों राजाओं से पूजित और विशेषार्थ के ज्ञाता ऐसे आपकी आज्ञा को शिरोभूषण के समान धारण करते हैं, उन मनुष्यों की कीर्ति सदा मैं पहले, मैं पहले इस भाव से आये हुए राजाओं के प्रणामों से शोभित होकर सर्वत्र दिशाविदिशाओं में फैलती है // 28 // जगत्स्वामी चामीकररजतरत्नोपरचितैविशालस्त्वं सालैः परमरमरणीयद्युतिरसि /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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