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________________ 66 ] . तव ब्रूते भूतेः समवसरणक्षमाप्यतिशयं, .. ध्वजव्याजभ्राजत्सरसरसनादुन्दुभिरवः // 26 // हे जिनेश्वर ! सुवर्ण, रजत एवं रत्नों द्वारा निर्मित विशाल साल वृक्षों से परम सुन्दर कान्तिवाले आप जगत् के स्वामी हैं। आपकी समवसरणभूमि भी ध्वजा के बहाने से शोभित सुन्दर जिह वारूपी दुन्दुभि के शब्दों से आपके ऐश्वर्यातिशय को कह रही है // 26 // : सभायामायाताः सुरनरतिरश्चां तव गणाः, स्फुटाटोपं कोपं न दधति न पीडामपि मिथः / न भीति नानीति त्वदतिशयतः केवलमिमे, सकर्णाः कर्णाभ्यां गिरमिह पिबन्ति प्रतिकलम् // 30 // हे प्रभो ! देव, मानव और तिर्यञ्चों के समूह आपकी सभा में आने पर स्पष्ट रूप से क्रोध को छोड़ देते हैं, पीडा से मुक्त हो जाते हैं, परस्पर भयभीत नहीं होते हैं और न्यायपूर्वक व्यवहार करते हैं / यह सब आपके अतिशय का ही प्रताप है कि वे सावधान होकर सदा अपने कानों से आपकी वाणी को श्रवण करते हैं / / 30 // गिरः पायं पायं तव गलदपायं किमभवन, सुधापाने जाने नियतमलसा एव विबुधाः / तदक्षुद्रा मुद्रा सितमहसि पीयूषनिलये, निजायत्ता दत्ता जठरविलुठल्लक्ष्ममिषतः // 31 // हे जिनेश्वर ! निर्विघ्नतापूर्वक आपकी वाणी को बार-बार सुनकर देवगण अमृतपान के प्रति भी आलसी हो गये हैं क्या? इसीलिये तो उन्होंने अपने अधीन जो बड़ी मुद्रा थी उसे शुभ्रकिरण चन्द्रमा
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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