________________ [ 67 को उसके उदर में दिखाई देनेवाले चिह्न के बहाने दे डाली // 31 // तनीयानप्युच्चन पटुरशनीया परिभवः, पिपासापि क्वापि स्फुरति न भवद्गीः श्रवणतः। भवेत् साक्षाद् द्राक्षारसरसिकता हन्त ! बहुधा, सुधास्वादः सद्यः किमु समुदयेन्नाधिवसुधम् // 32 // हे जिनेश्वर ! आपकी अमृत के समान वाणी को सुनने से भोजन सम्बन्धी पराभव तनिक भी नहीं होता, अर्थात् क्षुधा शान्त हो जाती है और प्यास भी नहीं लगती, बहुधा ऐसा लगता है कि हम द्राक्षारस के रसिक बन गये हैं तथा ऐसी तृप्ति का अनुभव होता है कि अब अमृत का आस्वाद भी पृथ्वी पर अपेक्षित नहीं है // 32 // ब्रुवारणौर्णिजिन ! सितकर कीतिनिकर, तव प्रत्न रत्न:टिति घटिता धर्मपरिषत् / अमन्दा मन्दारदुमकुसुमसौरभ्यसुभगा, न किं चित्ते धत्ते भुवन-भविना मेदुरमुदम् ? // 33 // हे देव ! आपका कीर्तिसमूहं चन्द्रमा है ऐसा कहते हुए देवताओं ने पुराने रत्नों से शीघ्र ही धर्मपरिषद् की रचना कर डाली। वह धर्मसभा सुन्दर पारिजात के पुष्पों की सुगन्ध से सुरभित होकर प्राणियों के चित्त में महान् हर्ष को नहीं धारण करती है क्या ? / / 33 / / "अशोक" स्ते श्लोकश्रवणजनितोऽयं जयति कि, शिरो धुन्वन् भूयश्चपलदलदम्भादतिमुदः / समस्तोदस्तोद्यदुरितपटलस्य प्रतिभुवः, शिवश्रीलाभस्थ प्रथितगुणरत्नव्रजभुवः // 34 //