________________ 68 ) हे जिनेश्वर ! उदीयमान समस्त पापसमूह को दूर भगानेवाला, मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति का प्रतिनिधि, प्रसिद्ध गुणरत्नों की खान ऐसे आपके गुणवर्णन रूप यश के सुनने से उत्पन्न अतिहर्षवाला तथा बारबार अपने चञ्चल पत्तों के बहाने सिर को कँपाता हुआ यह अशोक वृक्ष जय को प्राप्त कर रहा है क्या ? // 34 // जगभानोर्जानोः सममसमसौरम्यकलितं, पुरः के वा देवास्तव न दधते "पुष्पनिकरम्'। प्रसर्पत्कन्दर्पस्मयमथन-मुक्ताश्रव ! भवत्प्रभावादस्यापि व्रजति नियतं बन्धनमधः / / 35 // हे प्रभो ! जगत् में सूर्य के समान तेजस्वी आपके सामने जानुपर्यन्त उत्कृष्ट सुगन्धिवाले पुष्पों को कौन देव नहीं रखते ? और हे बढ़ले हुए कन्दर्प के अभिमान का मर्दन करनेवाले जिनेश्वर ! आपके प्रभाव से उस काम का बन्धन भी निश्चितरूप से निम्न हो जाता है // 35 // गलद्रोधं बोधं निजनिजगिरा श्रोतृनिकरा, लभन्ते हन्तेह त्वदुदित "गिरा" नात्तभिदया। इमां ते योगद्धि न खलु कुशलाःस्पद्धितुमहो !, परे घाम कामद् गगनमिव सूर्यस्य शलभाः // 36 // हे जिनेश्वर ! यहाँ भेदभाव रहित आपकी देशनारूपी वाणी से श्रोता लोग अपनी-अपनी वाणी के द्वारा बिना किसी रुकावट के ज्ञान को प्राप्त करते हैं। आपकी इस योग-ऋद्धि से स्पर्धा करने के लिये कोई समर्थ नहीं हो सकते, क्यों कि आकाश में विचरण करते हुए सूर्य की किरणों के साथ पतंगे स्पर्धा नहीं कर सकते हैं // 36 //