________________ 242 ] और सर्प, व्याघ्र और गौएँ तथा देव और राक्षस सभी पारस्परिक वैर का परित्याग करके प्रेमभाव से मिलकर रहते हैं-निवास करते हैं // 30 // समाधिसाम्यक्रमतो हि योगक्रियाफलावञ्चकलाभभाजः / प्रासादितात्यद्भुतयोगदृष्टि-स्फुरच्चिदानन्दसमृद्धयः स्युः // 31 // इस प्रकार समाधि-साम्य के क्रम से मुनिजन योग-क्रियाओं से प्राप्त होनेवाले फलों को बिना किसी रुकावट के प्राप्त करते हैं तथा अत्यन्त अद्भुत योग दृष्टि को पाकर चिदानन्द की समृद्धि से भासित होते हैं // 31 // (मन्दाक्रान्ता) यो यो भावो जनयति मुदं वीक्ष्यमाणोऽतिरम्यो, बाह्यस्तं तं घटयति सुधीरन्तरङ्गोपमानः / मग्नस्येत्थं परमसमता-क्षीरसिन्धौ यतीन्दोः, कण्ठाऽऽश्लेषं प्रणयति महोत्कण्ठया द्राग यशःश्रीः // 32 // (इस संसार में) अत्यन्त सुन्दर दिखाई देनेवाले जो बाह्यभाव आनन्द को उत्पन्न करते हैं उन-उन भावों को बुद्धिमान् व्यक्ति समाधि-साम्यवाला मुनि अन्तरङ्ग उपमानों के द्वारा सम्पन्न करता है। और इस प्रकार परम समतारूपी क्षीरसमुद्र में मग्न यतिवर्य का यश बढ़ता है और लक्ष्मी शीघ्र ही उत्कण्ठापूर्वक उसका आलिङ्गन करती है (यहाँ “यशः श्री" पद से रचयिता के नाम का सङ्कत भी किया हुआ है / ) // 32 //