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________________ [11] प्राचार्य-श्रीमद्विजयप्रभसूरीश्वर-गुणगरणगर्भा स्तुति-गीतिः' श्रीविजयदेवसूरीशपट्टाम्बरे, जयति विजयप्रभसूः रिरर्कः / येन * वैशिष्टयसिद्धिप्रसङ्गादिना, निजगृहे योग-समवाय-तर्कः // श्रीविजय० 1 // ज्ञानमेकं भवदू विश्वकृत् केवलं, दृष्टवाधा तु कर्तरि समाना। इति जगत्कर्तृ लोकोत्तरे सङ्गते, सङ्गता यस्य धीः सावधाना ॥श्रीविजय० 2 // 1. यह गीति पू० वाचक श्री यशोविजय जी महाराज ने आचार्य श्री विजय प्रभसूरीश्वरजी महाराज को कोई 'तात्त्विक-पत्र' लिखा था, उसमें लिखी थी। इस रचना के पश्चात् जो 'विज्ञप्ति-काव्य' प्रकाशित कर रहे हैं, उसके अन्तर्गत भी यह रचना हो सकती है, किन्तु प्रायः अन्य विज्ञप्तियों में प्रथम 'प्रभु-स्मरण' और तदनन्तर अन्य वर्णन आये हैं, अतः उसी परम्परा का यहाँ भी निर्वाह करते हुए इसे स्वतन्त्र स्थान दिया गया हैं। तथा 'गीति' होने के कारण इसका अर्थ भी एक साथ दिया जा रहा है। -सम्पादक
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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