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________________ [ 237 के लिये) पर्वत, लता-झाड़ी या वन आदि की खोज करता है वैसे ही नपुंसक-वृत्तिवाले व्यक्ति अध्यात्म-साधना में आनेवाले कष्टों से भयभीत होकर समाधि से रहित स्थान को ढूंढते हैं अर्थात् समाधि से रहित अध्यात्म-साधना सामान्य जीवों के लिये है किन्तु उत्तम योगी के लिये नहीं / / 13 // रणागणे शूरपरम्परास्तु, पश्यन्ति' पृष्ठं नहि मृत्युभीताः / समाहिताः प्रवजितास्तथैव, वाञ्छन्ति नोत्प्रवजितुं कदाचित // 14 // जिस प्रकार रणाङ्गण में शूरवीरों के बीच पहुँचे हुए सैनिक मृत्यु से डरकर पीठ नहीं दिखाते हैं, उसी प्रकार समाधि को प्राप्त साधू भी अपने इष्ट मार्ग से कदापि भागना नहीं चाहते हैं // 14 // न मूत्रविष्ठापिटरीषु रागं, बध्नन्ति कान्तासु समाधिशान्ताः / अनङ्गकोटालयतत्प्रसङ्गमब्रह्मदोर्गन्ध्यभयास्त्यजन्ति // 15 // - समाधि के द्वारा शान्तचित्त योगी मूत्र और विष्ठा की पिटारीरूप कान्ताओं में अनुराग नहीं बाँधते हैं तथा उनके साथ भोग-विलासजन्य प्रवृत्ति को महापातक से उत्पन्न दुर्गन्धि के भय से सर्वथा त्याग देते हैं // 15 // रम्यं सुखं यद्विषयोपनीतं, नरेन्द्रचक्रित्रिदशाधिपानाम् / समाहितास्तज्ज्वलदिन्द्रियाग्नि-ज्वालाघृताहुत्युपमं विदन्ति // 16 // नरेन्द्र, चक्रवर्ती तथा देवताओं का विषय-वासना से प्राप्त जो उत्तम सुख है उसे समाधियुक्त योगिजन जलती हुई इन्द्रियों की अग्निज्वाला में घृत की आहुति के समान मानते हैं // 16 // 1. अत्रेयं क्रियाऽन्तर्भावितण्यर्था /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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