________________ 236 ] अहम्भाव रखते हैं), अहङ्कार से उत्पन्न भावों का तनिक भी संस्पर्श नहीं होने देते और लोभ तथा क्षोभ से उत्पन्न विचारों से प्रशान्त भी नहीं होते। इसी प्रकार लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जीवनमरणरूप द्वन्द्वों के प्रति कोई आसक्ति-अनासक्ति न रखते हए समान भाव रखते हैं तथा रति और अरति के भाव भी जो नहीं रखते हैं, वे ही समाधि-सिद्ध मुनि कहलाते हैं / / 6-10 // . उग्ने विहारे च सुदुष्करायां, भिक्षाविशुद्धौ च तपस्यसा। समाधिलाभ-व्यवसायहेतोः, क्व वैमनस्य मुनिपुङ्गवानाम् / / 11 // उन विहार में, विशुद्ध भिक्षा प्राप्ति की अत्यन्त कठिनाई में और असह्य तप में भी समाधि-लाभ के लिये लगे हुए श्रेष्ठ मुनियों को कहाँ अरुचि हो सकती है ? अर्थात् कैसा भी कष्ट हो, वे प्रसन्नतापूर्वक उन कष्टों को सहन करते हैं // 11 // इष्टप्रणाशेऽप्यनभीष्टलाभे, नित्यस्वभावं नियतिञ्च जानन् / सन्तापमन्तर्न समाधिवृष्टिविध्यातशोकाग्निरुपैति साधुः // 12 // इष्ट वस्तु के नष्ट हो जाने और ईप्सित वस्तु के न मिलने में उनके नित्यस्वभाव तथा नियति-भाग्य की बलवत्ता को जानता हुआ साधु समाधि की वृष्टि से शोकाग्नि के शान्त हो जाने के कारण चित्त में सन्ताप को प्राप्त नहीं होता / / 12 // भीर्यथा प्रागपि युद्धकालाद्, गवेषयत्यद्रि-लता-वनादि / क्लीबास्तथाऽध्यात्मविषादभावा' समाहिताच्छन्नपदेक्षिणः स्युः॥१३॥ जैसे कोई भीरु-डरपोक व्यक्ति युद्ध होने के पहले ही. (अपने छिपने 1. “विषीदनेनासमाहिताच्छन्न" इति पाठोऽपि दृश्यते /