________________ 238 ] स्त्रैणे तृणे ग्राणि च काञ्चने च, भवे च मोक्षे समतां श्रयन्तः। [तां निर्वृति काञ्चन वक्ष्यमारणां]', समाधिभाजः सुखिता भवन्ति // 17 // स्त्रियों के समुदाय में, तृण में, पत्थर में, सुवर्ण में, संसार में और मोक्ष में समानभाव रखकर उसी को निवृति-निर्वाण मानते हुए समाधि से युक्त योगिजन सुखी होते हैं / / 17 / / जना मुदं यान्ति समाधिसाम्य-जुषां मुनीनां सुखमेव दृष्ट्वा / चन्द्रेक्षणादेव चकोरबालाः, पीतामृतोद्गारपरा भवन्ति // 18 // (इसलिये) समाधि-साम्य से युक्त मुनियों के सुख को देखकर ही लोग प्रसन्न होते हैं / जैसे चकोर (पक्षी) के बच्चे चन्द्रमा के दर्शनमात्र से ही अमृतपान किये हुए के समान आनन्दित होते हैं // 18 // अपेक्षिताऽन्तःप्रतिपक्षपक्षः, कर्माणि बद्धान्यपि कर्मलक्षः। प्रभा तमांसीव रवेः क्षणेन, समाधि-सिद्धा समता क्षिरणोति // 16 // विरुद्ध पक्षों के लाखों कर्मों से बँधे हुए कर्मों को अन्तःकरण में उठी हुई समाधिसिद्ध समता उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे कि सूर्य की प्रभा कुछ ही क्षणों में अन्धकार-समूह को नष्ट कर देती है // 16 // संसारिणो नैव निजं स्वरूपं, पश्यन्ति मोहावृतबोधनेत्राः। . समाधिसिद्धा समतैव तेषां, दिव्यौषधं दोषहरं प्रसिद्धम् // 20 // 1. नवनिर्मितोऽयं पादः /