________________ [ 236 ___ मोह से जिनके ज्ञाननेत्र मुंदे हुए हैं ऐसे संसारी जीव अपने स्वरूप को नहीं देख पाते हैं। इनके इस दोष (ज्ञाननेत्र के आवरण) को नष्ट करने के लिये तो दोषनाशक दिव्य औषधि समाधि-सिद्ध समता ही प्रसिद्ध है, उपयोगी है / / 20 // बबन्ध पापं नरकेषु वेद्यं, प्रसन्नचन्द्रो मनसा प्रशान्तः। तत्कालमेव प्रशमे तु लब्धे, समाधिभृत्केवलमाससाद // 21 // शान्तमन प्रसन्नचन्द्र ने (पहले तो) नरकों में वास करानेवाले पापों को बाँधा। किन्तु (बाद में उसका ज्ञान होने पर) प्रशम-वैराग्य को अंगीकार कर लेने पर वह समाधिस्थ होकर केवलज्ञान को प्राप्त हो गया // 21 // षट्खण्डसाम्राज्यभुजोऽपि वश्या, यत्केवलश्रीभरतस्य जज्ञे। न याति पारं वचसोऽनुपाधिसमाधिसाम्यस्य विजृम्भितं तत् // 22 // ___ छह खण्डों का साम्राज्य भोगनेवाले महाराजा भरत चक्रवर्ती को भी जो केवल-लक्ष्मी वशीभूत हुई थी, वह निरुपाधिक समाधिसमता के वैशिष्टय के सामने वाणी के पार को प्राप्त नहीं होती है अर्थात् वह भी इसके सामने सामान्य है / / 22 // अप्राप्तधर्माऽपि पुरादिमाईन्-माता शिवं यद्भगवत्यवाप / समाधिसिद्धा समतैव हेतुस्तत्रापि बाह्यस्तु न कोऽपि योगः॥ 23 // धर्म को प्राप्त न होते हुए भी पूर्व काल में आद्य अर्हन्माता भगवती ने जो शिवपद प्राप्त किया उसमें भी समाधि-सिद्ध समता ही कारण है अन्य कोई बाहरी योग कारण नहीं है // 23 // स्त्रीभ्रूणगोब्राह्मणघातजातपापादधःपातकृताऽऽभिमुख्याः। दृढप्रहारिप्रमुखाः समाधिसाम्यावलम्बात्पदमुच्चमापुः // 24 //