________________ [ 257 यत्प्रासादोच्चदेशेषु प्रच्छन्नस्वप्रियाधिया। * प्राश्लिष्यन्ति सुराः स्नेहविशालाः शालभञ्जिकाः // 11 // जिस दीवबन्दर के भवनों के ऊपर अति स्नेहासक्त देवगण अपनी प्रियतमात्रों को छिपी हुई जानकर शालभजिका(पुत्तलिका)ों का आलिङ्गन करते हैं / / 11 // ‘भान्ति यत्र स्त्रियः श्रोणि-नवलम्बितमेखलाः। दृश्यन्ते जातुनो दोषानवलम्बितमे खलाः // 12 // जिस दीवबन्दर में रहनेवाली स्त्रियाँ अपने कटि-प्रदेश में लटकती हुई नवीन मेखलाओं से शोभित होती हैं किन्तु दोषों का सर्वथा अवलम्बन करनेवाले खल-दुष्टजन कहीं नहीं दिखाई देते हैं। (यहाँ से 14 वें पद्य तक परिसंख्या' और यमक नामक अलङ्कार है) // 12 // दधते सुधियो लोका न यत्रासारसाहसम् / कुर्वते धुसदां दीना न यत्रासारसाहसम् // 13 // और जहाँ विद्वज्जन किसी सारहीन वस्तु की उपलब्धि के लिये साहस-प्रयास नहीं रखते हैं. अर्थात् बुद्धिपूर्वक विचार करके ही सारपूर्ण कार्य में प्रवृत्त होते हैं। तथा जहाँ सामान्य व्यन्तरादि देव व्यर्थ का उपद्रव नहीं करते हैं // 13 // यत्र व्ययो दिनस्यासीन्न वेत्यरुचिराजितः। यद्वने स्वर्जनो नासीन्नवेत्यरुचिरानितः // 14 / जहाँ दिन का व्यय रुचिपूर्ण कार्यों से होता था अथवा दिवस की . परिणति भी अरुचिकर नहीं होती थी क्योंकि रात्रि में भी उतनी ही रुचि बनी रहती थी। इसी प्रकार जहाँ के वनों में मनुष्य तो क्या