________________ 208 ] क्योंकि उक्त सम्बन्ध के अप्रत्यक्ष होने से उसका नाश भी अप्रत्यक्ष होगा, अतः उक्त नाश अमुक के होने पर होता है और अमुक के न होने पर नहीं होता है इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक का ज्ञान न हो सकने से उसके प्रति किसी कारण का निश्चय न हो सकेगा ? फलतः जानबूझ कर हिंसा में प्रवृत्ति अथवा हिंसा से निवृत्ति न होगी और उसके अभाव में अपराध-निर्णय तथा दण्ड आदि की व्यवस्था का कार्य न हो सकेगा। इसी प्रकार आत्मा यदि एकान्तरूप से अनित्य होगा, तो प्रतिक्षण में उसका नाश स्वतः होते रहने से किसी को उसकी हिंसा का दोष न होगा। यदि यह कहा जाए कि आत्मा के क्षणिकत्व मत में केवल एक क्षण तक ही ठहरनेवाला कोई एक व्यक्ति ही जीव नहीं है अपितु क्रम से अस्तित्व प्राप्त करनेवाले ऐसे अनगिनत क्षणिक व्यक्तियों का जो सन्तान-समूह होता है, वह एक जीव होता है उस सन्तान के भीतर का एक-एक व्यक्ति तो क्षणिक अवश्य होता है पर वह सन्तान क्षणिक नहीं होता है। अतः उस सन्तान का प्रतिक्षरण स्वतः नाश न होने के कारण उस सन्तान का नाश करने वाले को हिंसा का दोष लग सकेगा तो, यह ठीक नहीं है, क्योंकि कृतहान-पूर्वजन्म में किये गये कर्म की निष्फलता और अकृताभ्यागम-नये जन्म में कर्म किये बिना ही फल की प्राप्ति रूप दोषों से बचने के लिये एक जन्म के एक जीव-सन्तान का मृत्यु से नाश और नये जन्म में नितान्त नूतन जीवसन्तान का उदय नहीं माना जा सकता, फलतः मृत्यु से एक सन्तानका नाश और जन्म से नूतन सन्तान का उदय मान्य न होने से सन्तान नाश को हिंसा नहीं कहा जा सकता, यदि यह जाय कि एक शरीरसन्तान के साथ एक जीव-सन्तान के सम्बन्ध का नाश हिंसा है तो आत्मा के एकान्तनित्यत्व पक्ष में शरीर के साथ आत्मा के विशिष्ट सम्बन्ध के नाश को हिंसा मानने में जो दोष बताया गया है उससे इस