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________________ [ 206 मत में भी मुक्ति नहीं मिल सकती। .. पद्य के उत्तरार्ध में स्तोत्रकार का कथन है कि उपर्युक्त रीति से आत्मा की एकान्त नित्यता और एकान्त अनित्यतारूप मतों के दोषग्रस्त होने से भगवान् महावीर ने आत्मा के विषय में जो अपना यह मत बताया है कि "भजना-स्याद्वाद के कवच से सुरक्षित, नित्यानित्यात्मक निर्मल चित्स्वरूप ही आत्मा का स्वरूप है, वही श्रेष्ठ मत है", उसमें किसी प्रकार के दोष का अवकाश नहीं है / 77 // एताहगात्ममननं विनिहन्ति मिथ्याज्ञानं सवासनमतो न तदुत्थबन्धः / कर्मान्तरक्षयकरं तु परं चरित्रं, निर्बन्धमात्थ जिन ! साधु निरुद्धयोगम् // 78 // *उक्त पद्य में यह बताया है कि 'मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान अथवा केवल क्रिया से नहीं होती अपितु दोनों के समुच्चय से होती है, क्योंकि प्रात्मा को बन्धन में. डालने वाली दो वस्तुएँ हैं-१. वासनासहित मिथ्याज्ञान और 2. अनेक जन्मों में सञ्चित कर्मपुञ्ज / ' उनमें पहले का नाश तो स्याद्वादसिद्ध आत्म-स्वरूप के अवबोध से सम्पन्न हो जाता है, पर दूसरे कारणसञ्चित कर्मपुञ्ज के अवशेष रहने से तन्मूलक बन्धन से आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाती। अतः उस दूसरे कारण का नाश करने के लिये सच्चरित्र का परिपालन आवश्यक होता है। सच्चरित्र का सम्यक् परिपालन जब पूर्णता को प्राप्त करता है तब सञ्चित समस्त कर्मपुञ्ज का क्षय हो जाने से बन्धन का वह द्वार भी बन्द हो जाता है। इस प्रकार बन्धन के दोनों द्वार बन्द हो जाने पर आत्मा को पूर्ण मुक्ति का लाभ प्राप्त होता है, अतः भगवान् महावीर ने उचित ही कहा है कि 'जब सभी योगों-बन्धकारणों का निरोध
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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