________________ 210 ] हो जाता है, तभी निर्बन्ध-बन्धनों से नितान्त मुक्ति की सिद्धि होती है' // 78 // ज्ञानं न केवलमशेषमुदीर्य भोगं, कर्मक्षयक्षममबोद्धदशाप्रसङ्गात् / वैजात्यमेव किल नाशकनाश्यतादौ, तन्त्रं नयान्तरवशादनुपक्षयश्च // 7 // जैसे सच्चरित्रपालन के बिना अकेले क्षायोपशमिक ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार चरित्र के अभाव में अकेले केवलज्ञान से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि संचित कर्मकोशों का नाश उससे भी नहीं हो पाता। यदि यह कहा जाए कि जब साधक को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है तब वासनासहित मिथ्याज्ञान का नाश होने के साथ ही उसे समस्त संचित कर्मों के सहभोग की भी क्षमता प्राप्त हो जाती है। अतः केवलज्ञान से सम्पन्न साधक भोगद्वारा सम्पूर्ण संचित कर्मों का अवसान कर पूर्णरूपेण मुक्ति प्राप्त कर सकता है / इसलिये मोक्षसिद्धि के लिये केवलज्ञानी को सच्चरित्र का पालन अनावश्यक है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि संचित कर्मकोशों में ऐसे भी कर्म होते हैं जो अज्ञानबहुल जन्मद्वारा भोग्य होते हैं, फिर उन कर्मों का भोग करने के लिये केवलज्ञानी को उस प्रकार का भी जन्म ग्रहण करना होगा और जब केवलज्ञानी को उस प्रकार के जन्म की प्राप्ति मानी जाएगी तो उसमें अज्ञान का बाहुल्य भी मानना होगा, जो उस श्रेणी के विशिष्ट ज्ञानी के लिये कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता। यदि यह कहा जाए कि अज्ञान बहुल जन्म से भोग्य कर्मों का नाश हो जाने के बाद ही केवलज्ञान का उदय होता है, क्योंकि केवलज्ञान का उदय होने के पूर्व सच्चरित्र के आराधन से ही उन कर्मों का नाश मानना होगा, तब यदि उन कर्मों