________________ [ 207 उपपत्ति हो जाती है, पर जो नैयायिक आपसे द्वेष करते हैं वे आपके वचन को श्रद्धापूर्वक ग्रहण नहीं करते। उनके मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष का यथार्थ प्रतिपादन नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मत में आत्मा विभु होने से निष्क्रिय है अतः वह नूतन कर्मों के ग्रहणरूप बन्धन और संसारी क्षेत्र से निकल कर सिद्धिक्षेत्र में प्रवेशरूप मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता / / 76 / / . एकान्तनित्य समये च तथेतरत्र, स्वेच्छावशेन बहवो निपतन्ति दोषाः / तस्माद् यथेश ! भजनोज्जितचित्पवित्र मात्मानमात्थ न तथा वितथावकाशः // 77 / / आत्मा नितान्त नित्य है अथवा आत्मा सर्वथा अनित्य है, इन दोनों मतों में बहुत से दोष अनायास ही प्रसक्त होते हैं। जैसे जब आत्मा नित्य होगा तो उसकी हिंसा न हो सकेगी, और जब हिंसा न होगी तो हिंसक समझे जानेवाले मनुष्य को पाप न लगेगा। और मनुष्य जब यह समझ लेगा कि किसी का सिर काट देने पर अथवा किसी को गोली से उड़ा देने पर भी उसे कोई पाप न होगा तो उसे इन दुष्कृत्यों को करने में कोई हिचक न होगी, फलतः संसार में घोर नर-संहार के प्रवृत्त होने से समाज का सारा स्वरूप ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यदि यह कहा जाय कि हिंसा का अर्थ स्वरूपवश नहीं है जिससे प्रात्मा को नित्य मानने पर उसको अनुपपत्ति हो; किन्तु हिंसा का अर्थ यह है कि शरीर, प्राण और मन के साथ आत्मा के जिस विशिष्ट सम्बन्ध के होने से आत्मा में जीवित रहने का व्यवहार होता है उस सम्बन्ध का नाश / अतः आत्मा के नित्य होने पर भी उस सम्बन्ध के नित्य न होने से हिंसा की अनुपपत्ति न होगी, तो यह ठीक नहीं है,