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________________ 206 ] आत्मा प्रयत्न से नहीं अपितु अपने पूर्वाजित अदृष्ट से ही आहार आदि ग्रहण कर अपने शरीर का निष्पादन करता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि शरीरप्राप्ति के पूर्व बिना प्रयत्न के केवल अष्ट से ही अपना कार्य करेगा तो शरीर प्राप्ति के पश्चात्. भी वह अदृष्ट से ही अपना सब कार्य कर लेगा। अतः प्रयत्न का सर्वथा लोप ही हो जाएगा / इसलिये भगवान् महावीर का यह कथन ही सत्य है कि प्रात्मा केवल शक्तिरूप में ही व्यापक है किन्तु व्यक्तिरूप में वह शरीर समप्रमाण है तथा शरीर और आत्मा का. अन्योन्यानुप्रवेश होने के कारण वह सदैव सक्रिय है। प्रारम्भ में वह अपने कामशरीर की क्रिया से आहार ग्रहण करता है और उसके बाद स्थूल शरीर की निष्पत्ति न होने तक औदारिक तथा कार्मण दोनों शरीरों की सम्मिलित चेष्टा से आहार ग्रहण करता है // 75 // वीर्यं त्वया सकरणं गदितं किलात्म-. न्यालम्बनग्रहणसत्परिणामशालि / तेनास्य सक्रियतया निखिलोपपत्ति स्त्वद्वेषिणामवितथौ न तु बन्धमोक्षौ // 76 // हे भगवन् ! आपने बताया है कि 'अात्मा में एक विचित्र सामर्थ्य होता है, वह सामर्थ्य अनन्त सहकारी पर्यायों से सम्पन्न होता है, उन सहकारियों के सहयोग से उसमें विभिन्न भौतिक अणुओं के आलम्बन, आहाररूप में उनके ग्रहण और व्यक्तरूप में उनका परिणमन करने की अद्भुत क्षमता होती है। उस सामर्थ्य-वीर्य के सम्बन्ध से आत्मा सदैव सक्रिय होता है, अतः स्थूल शरीर की प्राप्ति के पूर्व से लेकर उसकी निष्पत्ति और अवस्थिति-पर्यन्त के सारे कार्य वह निर्बाधरूप से कर सकता है।' हे भगवन् ! आपके इस उपदेश को शिरोधार्य करने वाले मनीषियों के मत में आत्मा के बन्ध और मोक्ष की यथार्थ
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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