________________ [ 205 कर्मपुञ्जों की फलोन्मुखवृत्ति का उदय होने पर विभिन्न-जातीय भोगायतनों द्वारा भी एक जीव में विभिन्न भोगों के साङ्कर्य की आपत्ति होगी?' इस आपत्ति के प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि 'एकजातीय भोगायतन अन्यजातीय भोगायतन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक है, अतः मनुष्य शरीर के रहते पशु आदि के शरीर की प्राप्ति के अशक्य होने से उक्त आपत्ति नहीं होगी, तो यह कहना ठीक न होगा क्योंकि उस प्रकार के प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव में कोई प्रमाण नहीं है। उक्त आपत्ति के अप्रतीकार्य होने के कारण ही भगवान् महावीर के आगमज्ञ मनीषियों द्वारा योगियों के कायव्यूह-परिग्रह को भी मान्यता नहीं दी जा सकती, क्योंकि योगी यदि एक ही समय में विभिन्न कर्मों के फलभोग के लिये विभिन्न शरीरों को धारण करेगा, तो एक ही समय में मनुष्य, देवता, असुर, कुत्ता, बिल्ली, शूकर आदि विभिन्न शरीरों में योगी की स्थिति माननी पड़ेगी जो कि योगी जैसे सुकृतशील आत्मा के लिये नितान्त अनुचित है / / 74 // नात्मा क्रियामुपगतो यदि काययोगः, प्रागेव को न खलु हेतुरदृष्टमेव / प्राये क्षणेऽन्यदहतिः किल कामरणेन, - मिश्रात् तनोतु तनुसर्ममिति त्वमोघम् // 75 // - आत्मा के व्यापकत्व मत में सर्वातिशायी दोष यह है कि जब आत्मा विभु होगा तो स्वभावतः निष्क्रिय होगा, अतः शरीरप्राप्ति के पूर्व प्रयत्नहीन होने के कारण वह अदृष्टवश समीप में आये हुए भी भौतिक अणुओं को आहार के रूप में ग्रहण न कर सकेगा और आहार ग्रहण न करने पर शरीर का निर्माण न होगा, फलतः संसार में आत्मा का प्रवेश असम्भव हो जाने से इस प्रत्यक्षसिद्ध जगत् की उपपत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाए कि शरीर प्राप्ति के पूर्व