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________________ 204 ] मन का संयोग आदि कारण हैं, पर जब एक छिपकली के विभिन्न शरीर खण्डों में विभिन्न मनों से उसी जन्म के विभिन्न भोग उस छिपकली को होंगे तब उक्त कार्यकारण-भावों में व्यभिचार होने से उनके लोप का जो भय उपस्थित होगा, आत्मा के विभुत्व पक्ष में उस का कोई परिहार न हो सकेगा? . किन्तु जैनमत में इस प्रकार की आपत्तियों का कोई भय नहीं है क्योंकि इस मत में छिपकली के शरीर खण्डों में उसके मूल शरीर का एवं उन शरीर खण्डों में स्थित मन में उसके मूल शरीर में स्थित मन का एकान्तभेद नहीं होता / / 73 / / प्रत्यंशमेव बहुभोगसमर्थने तु, स्यात् सङ्करः पृथगदृष्टगवृत्तिलाभे। '. मानं तु मृग्यमियत व हतश्च काय व्यूहोपयोगिषु तवागमिकः परेषाम् // 74 // पूर्वोक्त दोषों के परिहार के लिए यदि यह कहा जाए कि 'जब छिपकली का शरीर कटने पर उसके कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों को स्वतन्त्र भोगायतन नहीं माना जाता, किन्तु उस दशा में भी छिपकली के भोग का आयतन उसका मूलशरीर ही होता है, शरीर के खण्ड तो मूलभूत भोगायतन के अंश-अवच्छेदक मात्र होते हैं, अतः उस समय भिन्न-भिन्न अवयवरूप अवच्छेदकों के सम्बन्ध से एक ही भोगायतन में छिपकली को अनेक भोग सम्पन्न होते हैं। इसलिये भोगायतन का भेद न होने से एक ही जन्म में जन्म एवं मरण के अनेकत्वादि दोषों की आपत्ति नहीं हो सकती ?' तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अवच्छेदक से यदि अनेक भोगों का एककालिक सामानाधिकरण्य माना जाएगा तो एक ही समय में अत्यन्त विसदृश
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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