________________ [.203 चित्तान्तरोपगमतां बाहुकार्यहेतु भावोपलोपजनितं च भयं परेषाम् // 73 // आत्मा को अव्यापक मानने पर जो दोष शङ्कास्पद थे उनका निराकरण कर आत्मा को व्यापक मानने पर प्रसक्त होने वाले अप्रतीकार्य दोषों का प्रदर्शन इस श्लोक में करते हुए कहा है कि ऐसे दोषों में प्रधान दोष यह है कि यदि आत्मा व्यापक होगा तो एक ही जन्म में उसके सैंकड़ों जन्म और मरण मानने होंगे? जैसे जब किसी छिपकली का शरीर कट जाने पर उसके कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों में कुछ देर तक कँपकँपी होती है, यह कँपकँपी दुःखानुभव होने के कारण ही होती है, दुःखानुभव उन विभिन्न खण्डों में तभी हो सकता है जब उनमें भिन्न-भिन्न मन का अनुप्रवेश माना जाय, और आत्मा के व्यापकत्व-मत में भोगायतन में मन का प्रवेश ही आत्मा का जन्म और उसमें से मन का निष्क्रमण ही मरण कहलाता है। इसलिये किसी छिपकली का शरीर कटने पर उसके जितने खण्ड होंगे उन खण्डों में उतने मन का प्रवेश होने पर उस छिपकली के उतने ही जन्म और उन खण्डों से मन का निष्क्रमण होने पर उतने ही उसके मरण मानने होंगे। उक्त रीति से एक जन्म में एक जीव से कई जन्म और कई मरण तथा कई भोगायतनों में उस जन्म के कई भोग मानने का परिणाम यह होगा कि आत्मा के व्यापकत्व मत में माने गये कई कार्यकारणभावों के लोप का भय उपस्थित हो जाएगा? जैसे किसी भी सामान्य जीव को एक जन्म में किसी एक ही शरीर में किसी एक ही मन से . उस जन्म के सभी भोग सम्पन्न होते हैं, यह वस्तुस्थिति है / इस वस्तुस्थिति को व्यवस्थित रखने के लिये इस प्रकार के कार्यकरणभाव माने जाते हैं कि अमुक जीव के अमुक जन्म में होनेवाले सम्पूर्ण भोग के प्रति अमुक शरीर, अमुक मन और अमुक शरीर के साथ अमुक