________________ [ 17 आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होता है तो उपाध्यायजी द्वारा रचित शास्त्र अथवा टीका के 'प्रमारण' को अन्तिम प्रमाण माना जाता है। उपाध्यायजी का निर्णय कि मानो सर्वज्ञ का निर्णय / इसीलिए इनके समकालीन मुनिवरों ने आपको 'श्रुतकेवली' ऐसे विशेषण से सम्बोधित किया है। श्रुतकेवली का अर्थ है 'शास्त्रों के सर्वज्ञ' अर्थात् श्रुत के बल में केवली के समान / इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ के समान पदार्थ के स्वरूप का वर्णन कर सकने वाले। ऐसे उपाध्याय भगवान् को बाल्यावस्था में (प्रायः आठ वर्ष के निकट) दीक्षित होकर विद्या प्राप्त करने के लिए गुजरात में उच्चकोटि के विद्वानों के अभाव अथवा अन्य किसी भी कारण से गुजरात छोड़कर दूर-सुदूर अपने गुरुदेव के साथ काशी के विद्याधाम में जाना पड़ा और वहाँ छहों दर्शनों तथा विद्याज्ञान की विविध शाखा-प्रशाखात्रों का आमूलचूल अभ्यास किया तथा उस पर उन्होंने अद्भुत प्रभुत्व प्राप्त किया एवं विद्वानों में 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में विख्यात हो गए थे। . काशी की राजसभा में एक महान् समर्थ दिग्गज विद्वान्, जो कि अजन था, उसके साथ अनेक विद्वान तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में प्रचण्ड शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला पहनी थी। पूज्य उपाध्यायजी के अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से अलंकृत किया था। उस समय जैनसंस्कृति के एक ज्योतिर्धर ने- जैन प्रजा के एक सपूत ने-जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार कराया था तथा जैनशासन की शान बढ़ाई थी। - ऐसे विविध वाङ्मय के पारङ्गत विद्वान् को देखते हुए आज की .