________________ [ 21 के पुष्प सदा से अर्पित करता आया है। वे ही पुष्प उत्तरकाल के भविकों के लिये स्तोत्र के रूप में संग्राह्य होते रहे हैं / इस प्रकार जैन सम्प्रदाय में स्तोत्र-सम्पदा बहुत ही अधिक सङ्गृहीत है। पूज्य उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने भी प्राकृत, संस्कृत एवं गुजराती-हिन्दी भाषा में अनेक स्तोत्र लिखे हैं उनमें कुछ तो यत्र-तत्र प्रकाशित हुए हैं और कुछ जो बाद में उपलब्ध हुए हैं वे इस ग्रन्थमें अनुवादसहित दिये गये हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'देवता की उपासना, स्तुति, भक्ति साधना और वरदान क्या ये कम-सत्ता पर प्रभाव डाल सकते हैं ? अथवा कर्म के क्षयोपशम में निमित्त बन सकते हैं ? ऐसी शङ्का सहजसम्भव है ! ऐसा समझकर ही उपाध्याय जी ने 'ऐन्द्रस्तुति' के एक पद्य की टीका में स्वयं प्रश्न उठाया है कि-'नच देवता-प्रसादादज्ञानोच्छेदासिद्धिः तस्य कविशेष-विलयाधीनत्वात्' इति वाच्यम्, देवताप्रसादस्यापि क्षयोपशमाधायकत्वेन तथात्वात्, द्रव्यादिक प्रतीत्य क्षयोपशम-प्रसिद्धेः' अर्थात् क्या देवलोक के देवों की कृपा से अज्ञानता का उच्छेद हो सकता है ? और उत्तर में कहा है कि-'वस्तुतः अज्ञानता के विनाश में 'ज्ञानावरणीयादि कर्म का क्षय, क्षयोपशम का कारण है। इतना होने पर भी देवकृपा भी क्षयोपशम का कारण बन सकती है, क्योंकि क्षयोपशम की प्राप्ति में शास्त्रकारों ने द्रव्यादिक पाँचों को कारण के रूप में स्वीकार किया है। इनमें देवता-प्रमाद 'भाव' नामक कारण में अन्तहित माना है। साथ ही पुरुष की प्रवृत्ति में जिस प्रकार श्रतज्ञान उपकारी है उसी प्रकार देवता की कृपा भी उपकारी है, यह बात 'ऐन्द्रस्तुति' में पद्मप्रभस्तुति के श्लोक 4 की टीका में 'भवति हि पुरुषप्रवृत्तौ श्रुतमिव देवताप्रसादोऽप्युपकारीत्येवमुक्तम्' कहकर भी उसकी पुष्टि की है।