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________________ 22] इस दृष्टि से ही प्रेरित होकर सम्भवतः सभी साधकवर्ग: यदि स्वयं कवित्वशक्ति रखता है तो स्वयं स्तोत्रादि की रचना करता है अन्यथा अन्य साधकों द्वारा प्रणीत स्तुतियों से इष्टदेव की कृपा प्राप्त करता है। इसी प्रसङ्ग में स्तोत्र, स्तुति, स्तव, संस्तव, स्तवन आदि शब्दों से रूढ प्रक्रिया के शाब्दिक एवं पारिभाषिक अर्थों पर विचार करना भी अप्रासङ्गिक न होगा। ___ इन सभी शब्दों के मूल में ष्टुन -स्तुतौ' धातु का 'स्तु' रूप निहित है। स्तुति अर्थ में प्रयुक्त इस धातु का स्फुट अर्थ गुणप्रशंसा होता है। इसी के आधार पर - 'जिनेश्वर देव के विशिष्ट सद्गुणों के कीर्तनादि से सम्बद्ध जो रचनाएँ हुई हैं वे 'स्तोत्र' नाम से अभीष्ट हैं।', स्तोत्र-रचना दो प्रकार की होती है / एक नमस्काररूप और दूसरी जिनेश्वरदेव के असाधारण गुणों का कीर्तन करने रूप / यहाँ द्वितीयरूप ही स्तोत्र' पद से गृहीत है। अर्थ की दृष्टि से वैसे स्तोत्र, स्तव आदि शब्द समानार्थक ही हैं तथापि रचना की दृष्टि से कुछ सूक्ष्म भेद उपलब्ध होते हैं / यथा 'तत्र स्तुतिरेकश्लोकमाना, एव दुगे तिसलोका, थुतीसु अन्नेसि जा होई, समय-परिभाषया स्तुतिचतुष्टये' आदि वाक्यों के अनुसार एक पद्य 1. उच्चर्युष्टं वर्णनेडा, स्तवः स्तोत्र स्तुतिर्नुति; / श्लाघा प्रशंसार्थवाद: (अभित्रान-चिन्तामणि, नाममाला, काण्ड 2, 183/84 / ) स्तुतिर्नाम गुणकघनम् (महि० स्तो०)। 2- स्तुतिद्विधा प्रणामरूपा, असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा च / आवश्यकसूत्रे /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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