SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 40.] अयं हि चन्द्रो ननु सँहिकेयो, यस्यास्ति कर : किल कुक्षिगामी। . . अवैत्यम म्लानतमं न को वा, विशेषदर्शी यशसस्तवाने // 53 / / हे देव ? जिसकी कुक्षि में रङ्कु हरिण है ऐसा यह चन्द्रमा न हो कर वस्तुतः राहु है। क्योंकि आपके यश के सामने कौन बुद्धिमान इसको अत्यन्त मलिन नहीं मानता है ? // 53 // वियद्विधाता प्रतिघनघृष्ट-चन्द्रेण .भानुद्युति सेचनश्च / .... भवद्यशोराशिनिवासयोग्यं, मत्वैध नित्यं कुरुते पवित्रम् // 54 // हे देव ! विधाता प्रतिदिन इस आकाश को आपके यशःसमूह के निवास योग्य मानकर ही चन्द्रमा के द्वारा घिसकर और सूर्य की किरणों द्वारा पानी डालकर साफ करके पवित्र कर रहा है / / 54 // ' भवद्यशोभिः सकलेऽपि सारे, मुष्टे विधुर्नाम बभूध भिक्षुः / कपालिनं सम्प्रति सेवनानः, प्राप्नोति लक्ष्मैष कपालमेव // 55 // हे जिनेश्वर ! आपके यश द्वारा समस्त सारतत्त्व का अपहरण हो जाने पर चन्द्रमा भिखारी हो गया है। और अब वह कपाली शिव की सेवा करता हुआ भी अपने चिह्न के रूप खप्पर को ही प्राप्त करता है // 55 // 2 1. यहाँ कवि ने कल्पना द्वारा आकाश को यशरूपी महापुरुष के निवास योग्य भवन बताकर उसकी सफाई के लिये चन्द्ररूपी श्वेत साबुन या पत्थर से घिसने और सूर्य-किरणों से धोने की बात कही है। यह एक आधुनिक युग के अनुरूप अपह्न ति अलंकार का उदाहरण है। -अनुवादक 2. वैदिक मत में शिव के मस्तक पर चन्द्रमा की स्थिति मानी जाती है। इस आशय को लेकर कवि ने कल्पना की है कि यह चन्द्रमा
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy