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________________ - 41 ] भवद्यशः पुष्टिकृते विधिर्यत्, सुधाब्धिमिन्दु निबिडं निपीड्य। गृह्णाति सारं तदमुत्र युक्तमङ्कः समुद्गच्छति पङ्क एव // 56 // हे देव ! ब्रह्मा आपके यश की पुष्टि के लिये अमृत के सागररूपी चन्द्रमा को मथकर उसका सार ग्रहण कर लेता है, यह उचित ही है। क्योंकि जो अङ्क है वह पङ्क के ऊपर ही आता है / / 56 / / ' प्रादाय सारं सकलं यदिन्दोरशोभि विश्वं भवतो यशोभिः / लक्ष्मच्छलात्तत् स्फुटमीक्ष्यतेऽसौ, सुधाम्बुधिः शैवलमात्रशेषः / / 57 // पहले महादेव के मस्तक पर नहीं था, किन्तु जब से जिनेश्वर के यश ने चन्द्रमा का सारा तत्त्व ले लिया तब से वह भिखारी बनकर शिव जी के पास रहने लगा। किन्तु जो स्वयं खप्परधारी था वह चन्द्रमा को क्या दे ? अतः उनसे चन्द्रमा को भी खप्पर ही मिला और वही खप्पर उसमें कलङ्ग के रूप में दिखाई देता है। -अनुवादक 1. सारांश यह है कि चन्द्रमा में जो कलङ्क है वह उसकी नि:सारता का अथवा पाप का प्रतीक है। कवि ने कल्पना की है कि- यह चन्द्रमा पहले निष्कलङ्क था किन्तु विधाता ने जब जिनेश्वर के यश की पुष्टि के लिये चन्द्रमा को मथकर उसका सार ले लिया तब वह कलङ्कवाला रह गया। ___ यहाँ एक पौराणिक कथा भी है कि गौतम ऋषि की पत्नी ग्रहल्या के प्रति इन्द्र द्वारा किये जानेवाले पापकर्म में सहायक बनने के कारण गौतम के शाप से यह कलङ्गित हा है। अतः कवि कहता है कि 'पङ्क में ही अङ्क होता है' अर्थात् जहाँ पङ्क-कीचड़ या पाप होता है वहीं कलङ्क या मलिनता रहती है। निर्मल में नहीं। - उपर्युक्त ३२वें पद्य से 72 तक भगवान् के यश के समक्ष चन्द्रमा को अतितुच्छ बताया गया है। -अनुवादक
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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