________________ 42] हे देव ! चन्द्रमा का समस्त सार लेकर अापके यशः-समूह से यह सारा जगत् शोभित हो रहा है, यही कारण है कि यह चन्द्रमा अपने कलङ्क-चिह्न के बहाने केवल शैवाल रूप में बचा हुआ ही दिखाई दे रहा है // 57 // भवद्यशःपूजनतत्पराया, दिवः प्रसूनाञ्जलिरेव चन्द्रः। . तयैव साक्षादुपढौक्यमाना, लाजा इवामी विलसन्ति ताराः // 58 // ___ हे जिनेश्वर ! आपके यश की पूजा में तत्पर आकाश की पुष्पा जलिरूप ही यह चन्द्रमा है। और उसी आक्राश से साक्षात् चढ़ाई गई लाजा के समान ये तारे शोभित हो रहे हैं / 58 // . . जिगीषुणा त्वद्यशसा जगन्ति, पत्रं 'ललम्बे विधुरन्तरिक्षे। तदस्य धात्रोपरि वषितानि, ताराः प्रसूनानि जयस्य चिह्नम् // 56 // हे देव ! जगत् को जीतने की इच्छावाले आपके यश ने चन्द्रमा को यहाँ से भगा दिया तो उसने आकाश में जाकर आश्रय पाया और वह वहीं छिप गया। इस चन्द्रमा पर पाई गई विजय के उपलक्ष में ही विधाता ने जय के चिह्नरूप तारकरूपी पुष्प आप के यश पर बरसाए हैं / / 56 // कथं समस्त्वद्यशसा शशाङ्को, यमष्टमी चुम्बति वक्रमेव। ततो मुधा साम्यविधित्सुरुच्चैस्तक्ष्णोति धाता तनुमेतदीयाम् // 60 // हे देव ! आपके यश के समान चन्द्रमा कैसे हो सकता है ? क्योंकि अष्टमी वक्र चन्द्रमा का ही चुम्बन करती है / और यही कारण है कि यह जब पूर्णिमा के दिन आपके यश के साथ समानता पाने के लिए 1. अन्तभावितण्यर्थः /