________________ [ 43 बहुत बढ़ता है तो विधाता इस के शरीर को पुनः तराश कर वक्र बनाता है // 60 // इयद्वियत्तावककीर्तिगङ्गा, नीलाब्जलीलाग्रहयालुमूर्तिः। मरालबालस्य तदत्र युक्तं, सुखं सुधांशुः सुषमा बिभर्तु // 62 // हे देव ! नील-कमलों की लीला को ग्रहण करनेवाली मूर्ति से यह आकाश आपकी कीर्तिरूपी गङ्गा है। अतः यहाँ किसी बालहंस का रहना उचित है। इसी लिए वहां ये चन्द्र बालमराल की परम शोभा को पा रहा है / 61 // भवद्यशोहंसमवेक्ष्य यस्य, स्वरूपमाख्याति विशेषदर्शी। वितत्य पक्षौ वियति व्रजिष्णुः, स मीनभोगी बक एव चन्द्रः // 62 // हे देव ! बुद्धिमान् व्यक्ति आपके यशरूप हंस को देखकर जिस चन्द्रमा के स्वरूप का वर्णन करते हैं, वह आपके यशरूपी हंस को देख कर अपनी दोनों (शुक्ल एवं कृष्णपक्षरूपी) पाँखों को फैलाकर आकाश में गमनशील चन्द्रमा मछलियों को खानेवाला बगुला ही दग्धस्य चन्द्रो हरनेत्रवह्नौ, मनोभुवो भ्राजति भस्मगोलः / विलीयते यं सततं त्वदीय-यशःसुधावारिद-वर्षणेन // 63 // हे देव ! महादेव की नेत्राग्नि से जले हुए कामदेव की राख का गोला ही यह चन्द्रमा शोभित हो रहा है। जो निरंतर आपके यशरूपी अमृत की वर्षा से विलीन हो जाता है—बह जाता है // 63 // राकामयं ते तनुते जगद्-यद्यशो विधोलाञ्छन-पङ्कमाजि / प्रस्यायमिन्दोर्ननु पक्षपातो, द्विषाऽन्यथा वेति कथं विवेच्यः // 64 //