________________ [ 36 लोप करता हुआ वह उज्ज्वल वर्ण अपनी चतुराई से आपके उज्ज्वल यश में जाकर मिल गया अर्थात् सर्वत्र आपके यश की उज्ज्वलता ही व्याप्त है / / 46 // हसन्निमीलयुगपत्पयोजं, भवन्महो भानुयशःशशिभ्याम् / शङ्का वितेने दिनरात्रशिल्प-क्रमे विधेर्नू नमकौशलस्य // 50 // हे जिनेश्वर ! आपके तेजरूपी सूर्य और यशरूपी चन्द्रमा के एक साथ प्रकाशित रहने के कारण एक ही काल में खिलता और मुंदता हुमा कमल विधाता की दिन और रात बनाने की क्रिया में निश्चित ही अकुशलता की शङ्का को बढ़ा रहा है / / 50 / / विश्वेऽपि यो मात्यपि, नैव वर्णः सकर्णकर्णादरकोणवासी। बोद्धं क्षमास्तीवधियोऽपि धीराः, श्लोकं त (त्व) दीयं कथमेतमेते // 51 // . हे देव ! जो होठों के तनिक हिलने मात्र से ही वक्ता के प्राशय को समझ जाते हैं, ऐसे सावधान व्यक्तियों के कानों के कोण में आदर पूर्वक निवास करनेवाला जो वर्ण आपकी प्रशंसा अथवा यशोवर्णन संसार में भी नहीं समाता है ऐसे आपके उस यशोवर्णन को तीव्रबुद्धि पण्डित लोग भी जानने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? // 51 / / स्वरं दिवः स्नातवतस्तटिन्यां, समुच्छलत्तारकतोयबिन्दु। . सितत्विषस्त्वद्यशसः पवित्रं, विधुस्तनुप्रोञ्छनकं विभाति // 52 // हे देव ! स्वतन्त्रता-पूर्वक स्नान करते हुए शुभ्र कान्तिवाले आपके यश का यह चन्द्रमा उछलते हुए तारकरूपी जलबिन्दुओंवाला पवित्र अंगप्रोञ्छन-वस्त्र (अंगोछा-गमछा) के समान शोभित हो रहा है (यह एक अभिनव उपमा है) // 52 //