________________ 38 ] त्वयि प्रभो ! जाग्रति दानशौण्डे, गोपायति स्वं ननु पारिजातः। .. न केवलं तैः पटलैरलीनां, स्वदारुभावादपि दुर्यशोभिः // 47 // . हे प्रभो ! आप जैसे दानवीर के विद्यमान रहने पर वह पारिजात वृक्ष निश्चय ही अपने शरीर को न केवल भँवरों के समूह से ही छिपाता है, अपितु अपने काष्ठमय-कठोर शरीर होने सम्बन्धी अपयश के कारण भी शरीर को छिपाता है। (यहाँ अपह्न ति अलङ्कार द्वारा वृक्ष पर भँवरों की स्थिति को मुंह छिपाने के भाव से व्यक्त किया गया है) // 47 // अन्ये कथं जाग्रति पारिजाते, ह्यपारिजाते न तव व्यथाय। . निषेव्यतामेष जगन्निषेव्यो, मम प्रभुनूनमपारिजातः // 48 // हे जिनेश्वर ! दूर कर दिया है रागद्वेषादि शत्रुसमूह को ऐसे साक्षात् पारिजात-कल्पवृक्ष आपके रहने पर अन्य शत्रु-समूह से आक्रान्त लोग क्यों जाग रहे हैं ? यह आपकी पीड़ा के लिये नहीं है अर्थात् इस सम्बन्ध में आप तो निश्चिन्त हैं। परन्तु (मेरी कवि की धारणा यह है कि) वे इसलिये जाग रहे हैं कि-'ये जगत् के द्वारा सेवनीय मेरे वीतराग प्रभु ही सबके द्वारा सेव्य हैं, यह निश्चित है' उन्हें यह समझाना आवश्यक है // 48 // भवद्यशोभिभुवि भासितायां, सिनेतरन्नाम सिते ममज्जे। लुम्पत्परेषामभिधां स्वनाम्ना, सितं तु तत्र स्वधिया ममज्जे // 46 // हे जिनेश्वर ! आपके यशःसमूह के द्वारा पृथ्वी के भासित हो जाने पर उज्ज्वलता के अतिरिक्त जो भी वस्तु थी, वह उस उज्ज्वलता में डूब गई। अर्थात् आपके यशःप्रकाश के समक्ष रक्त, पीत, नील आदि वर्ण समाप्त हो गये और अपने नाम से दूसरों के नाम का