________________ [ 81 प्रतीर्योधवीर्यो जयति सकलासद्ग्रहजलं, प्रपूर्णेच्छम्लेच्छवज-सदृश मिथ्यात्वविजयात् // 65 // हे जिनेश्वर ! आप कर्मसमूहरूपी भयंकर वैताढ्यपर्वत में लगे हुए ग्रन्थि नामक कपाट को सुपरिणामरूपी दण्ड से खोलते हुए, उदीयमान पराक्रमशाली, सम्पूर्ण मिथ्याग्रहरूपी जल को पार कर म्लेच्छसमूहों के समान मिथ्यात्व की विजय से इच्छा पूर्ण करके विजय को प्राप्त हो रहे हैं / / 65 // मता देवाः सुभ्रूस्तनजघनसेवासु रसिका, नहादम्भारम्भाः प्रकृतिपिशुनास्तेऽपि गुरवः / दयाहीनो धर्मः श्रुतिविदित-पीनोदय इति, प्रवृद्धं मिथ्यात्वं सुसमयघरट्टदलितवान् // 66 // हे जिनेश्वर ! जो सुन्दरियों के स्तन एवं जघनों की सेवा में रसिक होते हुए भी देव माने गये, स्वभाव से चुगलखोर एवं महान् अभिमानी होते हुए भी गुरु माने गये तथा वेद में प्रख्यात होने के कारण जिसकी व्यापकता बढ़ गई है ऐसा दयाहीन धर्म धर्म माना गया उस सब बढ़े हुए मिथ्यात्व का आपने अपने उत्तम शास्त्र एवं सिद्धान्तरूपी घरट्टचक्की के द्वारा दलन कर दिया / / 66 / / ... पर देव ! त्वत्तो न खलु गणयामि क्षणमपि, - त्वदादिष्टादिष्टाद् गुरुमपि पथः प्रच्युतमिह / सहे नान्यं धर्म नृपसदसि जल्पव्रजमहे, : . ' महेश ! त्वं तस्मान्मयि कुरु दयां शश्वदुदयाम् // 7 // हे देव जिनेश्वर ! मैं आपको छोड़कर अन्य देव को क्षणभर के