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________________ 82 ] लिये भी मानने को तैयार नहीं हैं। आपके हितकारी उपदेश के मार्ग से भ्रष्ट गुरु को भी मैं नहीं मानता हूँ तथा कहने योग्य बातों के समूह से जहाँ उत्सव होता है ऐसी राजसभा में अन्य धर्म को भी सहन नहीं करता हूँ। अतः हे महेश ! आप मुझ पर सदा उदय पाने वाली दया कीजिये // 6 // भयं सर्व याति क्षयमुदयति श्रीः प्रतिदिनं, विलीयन्ते रोगा लसति शुभयोगादपि सुखम् / महाविद्यामूलं सततमनुकूलं त्रिभुवना, भिराम ! त्वन्नाम स्मरणपदवीमृच्छति यदि // 68 // हे तीनों लोक में अतिसुन्दर जिनेश्वर ! यदि कोई व्यक्ति आपके नाम का स्मरण करता है तो उसके समस्त भय मिट जाते हैं प्रतिदिन लक्ष्मी की वृद्धि होती है, रोग नष्ट हो जाते हैं, उत्तम योगों से सुख प्राप्त करता है तथा महाविद्या का मूल सदा अनुकूल रहता है / / 68 // नमदमर्त्यकिरीटमणिप्रभापटल-पाटलपादनखत्विषे। गलितदोषवचोधुतपाप्मने, शुभवते भवते भगवन् ! नमः / / 66 / / - प्रणाम करते हुए देवों के मुकुट की मणियों की कान्ति से किञ्चित् रक्तवर्ण ऐसे चरण और नखों की प्रभावाले, दोषों के विनाशक तथा अपनी वाणी से पाप को धो देने वाले हे कल्याणकारी प्रभु पार्वजिनेश्वर ! आपके लिये मेरा नमस्कार है / / 66 / / सुरतरु: फलितो मम साम्प्रतं, विगलितोऽपि च दुष्कृत-सञ्चयः / सुरमणी रमणीय ! भवन्नुतेः, करतले रतलेपहरालुठत // 10 // हे अतिमनोहर जिनेश्वर प्रभु ! आपको नमस्कार करने से मेरे
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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