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________________ [ 66 त्वमोशिताहं तव सेवकश्चेत्, ततः परा का पदवी विशिष्टा ? / समेधमानेऽत्र हि सन्निकर्षे, पुरन्दद्धिः प्रथते पुरस्तात् // 47 // हे जिनेश्वर ! यदि आप स्वामी हैं और मैं सेवक हूँ, तो इससे बढ़ कर और दूसरी विशिष्ट पदवी क्या हो सकती है ? क्योकि यहाँ भूतल पर मेघों के बरसने पर इन्द्र की समृद्धि ही सर्वत्र उपस्थित होती है अर्थात् मेघ जब बरसते हैं तो उनका स्वामी बड़ा समृद्धिशाली हैं' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार आपकी समृद्धि का अनुमान मुझसे किया जाएगा, तदर्थ आप मुझे वैसा बनाएँगे ही / / 47 / / परेषु दोषास्त्वयि देव ! सद्गुणा, मिथोऽवलेपादिव नित्यमासते / स्फुरन्ति ‘नेन्दावपतन्द्रचन्द्रिकास्तमोभरा वा किमु सिंहिकासुते ? // 48 // हे देव ! पारस्परिक अवलेप-गर्व के कारण सदैव दूसरे देवों में दोष है और आप में सद्गुण हैं। क्योंकि चन्द्रमा में विकासशील चन्द्रिका और राहु में अन्धकार का समूह स्फुरित नहीं होते हैं क्या ? // 48 / / विशङ्कमले दधते विलासिनीविशिष्टमिच्छन्ति च देवतायशः / परे तदेते ज्वलता हरिर्भुजा, वितन्वते तापसमापनाथिताम् // 46 // हे जिनेश्वर ! दूसरे देव निःशङ्क होकर अपनी गोद में सुन्दर स्त्रियों को बिठाये हुए हैं और विशिष्ट देवतामों के यश की कामना करते हैं। किन्तु वस्तुतः उनकी यह यशः कामना जलती हुई अग्नि से ताप.. शान्ति की कामना जैसी है / / 46 / /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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