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________________ 68 ] त्वदङिघ्रनम्रो मम मौलिरालयः, . श्रियः प्रियस्त्वज्जपविस्तरः करः॥४३॥. हे जिनेश्वर ! मेरा मन आपके नमस्कार से प्रानन्दविभोर हो उठता है, मेरी आँखें आपके दर्शन करने पर महान् उत्सवों से पूर्ण हो जाती हैं, मेरा मस्तक आपको प्रणाम करने पर लक्ष्मी का निवास बन जाता है और आपका जप करने से मेरा हाथ भी प्रिय लगता है / / 43 // त्वदास्यसंवीक्षणशर्मवञ्चिते, नयोज्झितानां नयने निरर्थके। भवत्कथाकर्णनराहगीनयोर्न भारतोऽन्यत् फलमस्ति कर्णयोः // 44 / / हे देव ! जिन्होंने (उत्तम वस्तु को देखने रूप) न्याय का त्याग कर दिया है, ऐसे लोगों के नेत्र यदि आपके मुखदर्शनरूप सुख से वञ्चित रहते हैं तो वे निरर्थक हैं। इसी प्रकार आपकी कथा के श्रवणसुख से वञ्चित उनके कानों का फल भी भार के अतिरिक्त कुछ नहीं है / 44 / / पुष्पाणि पारिगर्न ललौ यदीयस्तदीयपूजा-विधये प्रमादात् / अमुष्य दूरे भवदुःखहानिर्भाग्योज्झितस्येव सुवर्णखानिः // 45 // हे देव ! जिस व्यक्ति का हाथ प्रमादवश आपकी पूजा करने के लिये पुष्प नहीं लाया, उससे भवदुःख की हानि उसी तरह दूर रहती है जिस प्रकार भाग्यहीन व्यक्ति से सोने की खान दूर रहती है / / 4 / / भूयासमिन्द्राय॑ ! भवद्भुजिष्यस्तव क्रमाम्भोजमधुव्रतः स्याम् / वहेय मौलौ परमां त्वदाज्ञां, स्तवे भवेयं तव सावधानः // 46 // ___ हे इन्द्रपूज्य ! (मेरी यही कामना है कि-) मैं आपका सेवक बनूं, आपके चरणकमल का भँवरा बनूं, आपकी परम आज्ञा को मस्तक पर वहन करूं और आपकी स्तुति करने में सावधान रहूँ // 46 / /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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