SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 67 हे जिनेश्वरं ! जिसने उदार मानव जन्म पाकर भी आपकी सेवा नहीं की उसने माहवश कल्पवृक्ष के पास खड़े रह कर भी फल के लिये अपने हाथ को लम्बा करके लेने मात्र में आलस्य किया है / / 36 // जनुर्मनुष्यस्य दिवः शतेन, क्रोणामि चेन्ना स्मि तदाप्यविज्ञः / यत्र त्वदाज्ञाप्रतिपत्तिपुण्यादमुत्र तज्जैत्रसहोदयाप्तिः // 40 // हे देव ! जिस मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर आपकी आज्ञा की स्वीकृति के पूण्य से परलोक में उस जयशील महोदय (मोक्ष) की प्राप्ति होती है उसे यदि मैं सैंकड़ों स्वर्गों को बेचकर भी खरीद लूँ तो भी अविज्ञ-मूर्ख नहीं कहलाऊँगा / 40 / / स्तोमः सुमानां तव देव ! पूजा, पूज्यत्वहेतुर्जगतां जनानाम् / भवत्तनौ स्नात्रजलाभिषेकः, साक्षादयं पुण्यसुरद्रुसेकः // 41 / / हे देव ! पुष्पों के समूह से अापकी पूजा करना जगत् के लोगों के पूज्यत्व का कारण है और आपके शरीर पर पुण्य स्नात्र-जल का जो अभिषेक है, वह साक्षात् कल्पवृक्ष को सींचना ही है / / 41 // गुणस्त्वदोयग्रथितां स्तुतिस्रजं. स्वयं च ये कण्ठगतां वितन्वते / प्रभङ्गसौभाग्यवशीकृता इव, श्रियो वरीतुं परितो भ्रमन्त्यमुम् // 42 // हे जिनेश्वर ! आपके गुणों से गूंथी हुई स्तुतिरूप माला को जो अपने कण्ठ में धारण करता है, उस व्यक्ति का वरण करने के लिये 'इसका मैं वरण करूँगी तो मेरा अखण्ड सौभाग्य बना रहेगा' इस भावना से लक्ष्मी उसके चारों ओर घूमती रहती है / / 42 // विनोदवत् त्वन्नुतिगोचरं मनो-, घनोत्सवे मन्नयने त्वदीक्षिरणी /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy