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________________ 66 ] सिद्धियाँ प्रदान करने के लिये ही सात तेजस्वी फणामणियों के बीच परम तेजस्वी अपनी मूर्ति को विराजित करके अष्टमूर्ति के रूप में शरीर धारण किये हुए हैं क्या ? // 35 // यद्येकनालानि समुल्लसेयुः, सरोवरे कोकनदानि सप्त। तदोपमीयेत तवेश ! मौलौ, तरुच्चकैः सप्तफरणी प्रदीप्रा // 36 // हे देव ! आपके मस्तक के ऊपर फैले हुए तेजोमय सातों फरणों को यदि किसी सरोवर में एक ही नाल पर सात कमल खिल जाएँ तो उनकी उपमा दी जा सकती है, अन्यथा वे अनुपमेय हैं / / 36 // भवेषु तीर्थेश ! चतुर्षु सारं, मानुष्यकं यत्र तवास्ति सेवा। श्लाघ्यो हि शैलेषु सुमेरुरेव, यत्राप्यते कम्पमहीरहश्रीः // 37 // हे जिनेश्वर ! चार प्रकार के जन्मों में मनुष्य जन्म श्रेष्ठ है, उस मनुष्य जन्म में भी आपकी सेवा ही सार है। क्योंकि पर्वतों में सुमेरु ही श्रेष्ठ है जहाँ कल्पवृक्ष की शोभा प्राप्त होती है // 37 // नृजन्म दुःखैकगृहं मुनीन्द्रः, प्रशस्यते त्वत्पदसेवयव / सौरभ्यलोभात् सुधियः फणीन्द्ररप्यावृतं चन्दनमाद्रियन्ते // 38 // हे नाथ ! मुनिवरों ने दुःखों के धन इस मनुष्य जन्म को आपके चरणों की सेवा मिल जाने के कारण ही प्रशंसनीय कहा है, क्योंकि बुद्धिमान् लोग सुगन्धि के लोभ से ही तो बड़े-बड़े विषधरों से आवेष्टित चन्दन वृक्ष का आदर करते हैं / / 38 // अवाप्य मानुष्यकमप्युदारं, न येन तेने तव देव ! सेवा। उपस्थिते तेन फले सुरन्द्रोः, करापरणालस्यमकारि मोहात् // 39 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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