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________________ [ 65 तवेश ! मौलौ रुचिराः स्फुरन्ति, फरणाः फरणीन्द्र-प्रवरस्य सप्त। तमोभरं सप्तजगज्जनानां, धृता निहन्तुं किमु सप्त दीपाः // 32 // हे परमात्मा ! आपके मस्तक पर जो श्रेष्ठ सर्पराज के सुन्दर सात फण शोभित हो रहे हैं क्या वे सातों भुवन के लोकों के अन्धकार-समूह का नाश करने के लिये सात दीप रखे हुए हैं ? // 32 / ! त्वन्मौलि-विस्फारफरणामणीनां, भाभिविनिर्यत्तिमिरासु दिक्षु। स्वकान्ति-कोतिप्रशमात् प्रदीपाः, . शिखामिषात् खेदमिवोद्गिरन्ति // 33 // हे प्रभो ! आपके मस्तक पर फैले हुए फणामणिरूपी दीप अपने प्रकाश से सभी दिशाओं का अन्धकार मिट जाने पर अपनी कान्ति क्षीण हो जाने से ऐसे दिखाई देते हैं मानो अपनी शिखाओं के वहाने दुःख प्रकट कर रहे हो // 33 // ध्यानानले सप्तभयेन्धनानि, हतानि तीवाभयभावनाभिः / इतीव किं शंसितुमीश ! दभ्रे, मौलौ त्वया सप्तफरणी जनेभ्यः // 34 // हे जिनेश्वर ! आपने अपनी ध्यानरूपी अग्नि में तीव्र अभय की भावना से सातों भयरूपी ईंधन को जला दिया है। अतः लोगों को यही समझाने के लिये आपने अपने मस्तक पर सात फणवाले सर्पराज को धारण किया है क्या? // 34 // अष्टापि सिद्धिर्युगपत् प्रदातुं, किमष्टमूर्तीस्त्वमिहानतानाम् / सप्तस्फुरद्दीप्तफरणामणीनां, क्रोडेषु सङ्क्रान्ततनुर्दधासि // 35 // हे भगवन् ! आप इस जगत् में प्रणत-जनों को एक साथ आठों
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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